पृष्ठ:अपलक.pdf/५०

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बस-बस, अब न मथो यह जीवन बस ! बस !! अब न मथो यह जीवन, इन इन्द्रिय-मन्थन दण्डों का और न अधिक करो उत्पीड़न, बस! बस !! अब न मथो यह जीवन । ज्यों-ज्यों मथा गया जीवन-रस त्यों-त्यों और ज़ोर से उफना, मन्थन के दाएँ-वाएँ इन गभाटों में उलझा लघु मन, बस ! बस !! अब न मथो यह जीवन । २ सोचा था यह सतत मथन-गति शायद कर दे जीवन सम-रस, पर, प्रति गति ने अन्तस्तल को किया और भी मन-मन उन्मन । बस ! बस !! अब न मथो यह जीवन । ३ सच कहता हूँ कि आ गया हूँ आजिज़ इस निहङ्ग हाथी से, लौटा दो मुझको मेरा वह छोटा-सा अंकुश मद-भञ्जन, बस ! बस !! अब न मथो यह जीवन । चौंतीस