पृष्ठ:अपलक.pdf/५१

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अपलक ४ मदोन्मत्त मातङ्ग-शृङ्ग पर मुझे चढ़ाया खाली हाथों, अब ताली दे क्यों बिखरते हो निज अट्टहास-मुक्ता-कण ? बस ! बस !! अब न मथो यह जीवन । ५ प्रिय, मेरी वेदना, व्यथा को अरे तनिक तो तुम अवलोको, यह पागल गज! यह जीवन नद! यह घन घटाटोप !!! यह गर्जन!!!! बस ! बस !! अब न मथो यह जीवन । ६ क्या द्विजन्म-सिद्धान्त प्रान्त है ? क्या यह है कोरा भ्रम ही भ्रम ? यदि सच है तो मम द्विजन्म का घंटा क्यों न बजे घन-घन-घन ? बस! बस !! अब न मथो यह जीवन । मुझे बहुत ही मन भाती है संयत, निर्धारित पगडण्डी, अब तो भ्रमित-मथित मत होने दो हे मेरे मानी मन-धन ! बस ! बस !! श्रवन मथो यह जीवन । श्री गणेश कुटीर, कानपुर, विना-1-30 (अग्नि दीक्षा-काल) } पैंतीस