पृष्ठ:अपलक.pdf/५५

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अपलक चल देने की बात न बोलो, ओ मेरे वैरागी। यदि यह सपना भी हो तो भी, मत तोड़ो हे त्यागी जब जग हेत्वाभास-मात्र है, तब फिर मेरा सपना- क्यों न रहे मेरे जीवन में होकर मेरा अपना ? इतना जानूँ हूँ कि तुम्ही हो मेरे सत्य चिरन्तन ; तुम बिन सूना होगा जीवन । श्री गोश कुटीर, कानपुर उनतालीस