पृष्ठ:अपलक.pdf/५७

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प्रपलक हम एकाकी ही सहते हैं- कब से पथ के आघात यहाँ ! जर्जर शरीर की लाचारी अब प्रकट रही है डग-डग में; हम चले जा रहे हैं मग में । ४ निष्ठा-लकुटी ही साथिन है, मंज़िल लम्बी, ढलता दिन है। परवाह नहीं, यदि पन्थ श्राज- सूना-सूना साथी बिन है। हमको यकीन है आयेगी फिर से फुती सब रग-रग में; हम चले जा रहे हैं मग में। ५ गर तुम देते निज पता बता, तो भी होती हम से न खता; हम तो यों ही चलते जाते- इस पथ पर, जग को बता घता! हाँ उससे इतना हो जाता : आती न थकावट पग-पग में; फिर भी हम चलते हैं मग में । श्री गणेश कुटीर, प्रताप, कानपुर, दिनाङ्क:-10-३८ इकतालीस