पृष्ठ:अपलक.pdf/६२

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वरं देहि आज, अव्यभिचारिणी निज भक्ति का वरदान दो तो, नित अपार्थिव, अति अकायिक स्नेह का स्मर-दान दो तो। ? प्राण, कौन अभाव है, तब लोचनों के अतल तल में ! कौनसी निधियाँ नहीं हैं तव करुण सुकुमार पल में ? है सभी कुछ तो तुम्हारे गहन, स्वप्निल, हग अमल में, किन्तु, फिर भी अन्य-रति-रत हूँ, मुझे पहचान लो तो, आज, अव्यभिचारिणी निज भक्ति का वरदान दो तो। २ दूर कर दो, सजन, अन्योपासना का चाव मेरा; सुदृढ़, सुस्थिर •तुम बना दो निपट चंचल भाव प्रेरा आज वर दो तव पदों में हो अनन्य झुकाव मेरा प्रिय, तनिक स्वीकार-सूचक निज मधुर मुसकान दो तो, आज अव्यभिचारिणी निज भक्ति का वरदान दो तो। ३ घुमड़ जब-जब मेध आए, उमड़ तब-तब राग आया, बिज्जु क्या चमकी कि हिय-उन्माद मेरा जाग आया, छियालीस