पृष्ठ:अपलक.pdf/६३

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अपलक मेघ गर्जन, शृङ्खला-खण्डन-निरत सन्देश लाया, आज इस ऋतु रार में, प्रिय, मम विनय पर कान दो तो; सजन, अव्यभिचारिणी निज भक्ति का वरदान दो तो। प्राण, क्या सीमा रहित है मुझ ससीमित की खानी ? और कितने पर्व में सम्पूर्ण होगी यह कहानी ? बहुत सुन ली हैं इसे तुमने, सजन मेरी ज़बानी, रखत्म कर दो खेल यह, अब बात मेरी मान लो तो; आज अव्यभिचारिणी निज भक्ति का वरदान दो तो। श्री गणेश कुटीर, प्रताप, कानपुर, दिनाङ्क ६-८-३६ } सैतालीस