पृष्ठ:अपलक.pdf/६५

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अपलक रूप अपार्थिव घर तुम विचर रहे हो, जीवन, पार्थिवता-पाश मुझे बाँधे है घर-घेर, यह सतत टेर विफल हुई बेर-वेर । जीवन में जो कुछ था अति पुनीत, अति पावन, वह सब तो त्वम्-मय था, ओ मेरे मन भावन, तुम बिन अब जीवन है अति नीरस सिकता-वन; किसे स्निग्ध स्नेह मिला बाल को पेर-पेर ? मेरी आकुल पुकार विफल हुई. बेर-बेर । श्री गणेश कुटीर, कानपुर, रोग-काल दिनाङ्क २०-१२-४६ उनचास