पृष्ठ:अपलक.pdf/७१

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अपलक त्वम-मय मम वाङ्गय हैं। तन्मय मम दरश-पीर; क्षीर-नीर एक रूप; तुम-मैं अब एक प्राण, सुन लो, प्रिय, मधुर गान। द आवाहन के प्रसून कब के कुम्हलाए हैं, हग-नभ में आति-मेघ उमड़-घुमड़ छाए हैं, ये मम श्राजानु बाहु, देखो, अकुलाए हैं। वक्षस्थल पर शिर घर, बँध जाओ गुण-निधान; सुन लो, प्रिय, मधुर गान । श्री गणेश कुटीर, प्रताप, कानपुर, दिनाङ्क ३-४ मई १९३७ पचपन