पृष्ठ:अपलक.pdf/७४

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अपलक ३ कई ये शिशिर और हेमन्त बीते, रहे प्राण अब तक वियोगी, पिरोते पड़ा रिक्त हिय, हम मरे हैं न जीते, सुना है भरो हो तुम्ही पात्र रीते; बैठो हिये, मैं सुनाऊँ तुम्हें गान, मुझमें घुलो आन, तुम, हे मृदुल प्राण । श्री गणेश कुटीर, प्रताप, कानपुर, रात्रि, १२ बजे दिनाङ्क ३-१०-३८ उनसठ