पृष्ठ:अपलक.pdf/७५

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फिर वही एक सूनी-सी दिशा से सुन पड़ा कुछ ललित मृद स्वर, श्री किसी की कण्ठ-ध्वनि वह था किसी का गान मनहर । ? कएठ स्वर के संग ही कुछ मीड-मय झंकार आई, गान-गंगा में मुदित मन-वीण-यमुना-धार धाई, कुछ सुपरिचित-सा लगा वह कराठ-गायन भार-वाही, थी किसी कर की सुपरिचित अँगुलियों से वीण थर-थर; सुन पड़ा कुछ हिय हरण स्वर । २ मुड़ गई ग्रीवा इधर को, खिंच गए लोचन बिचारे, किन्तु, उस सूनी दिशा को देख हारे हग हमारे; विफल अन्वेषण-उदधि में तैर उ8 नयन-तारे शून्य में हग-किरन बिखरी, झर उठे अरमान भरकर सुन पड़ा जब हिय-हरण स्वर। ३ श्रो अनिश्चित-सी दिशा से उद्गता तू गान-धारा, क्यों समाई है श्रवण में ? विकल है यह हिय विचारा; साठ