पृष्ठ:अपलक.pdf/७७

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क्या न सुनोगे विनय हमारी क्या न सुनोगे विनय हमारी ? हुये दग्ध दोनों कर, प्रियवर ! पूर्ण हुई इक अदा तुम्हारी; क्या न सुनोगे विनय हमारी? १ हमें भान है इस जीवन में अपने कृत शत-शत पापों का, इसी दाह मिस तुम से क्या, प्रभु, चेतावनी मिली है भारी ? अब तो सुन लो विनय हमारी। २ जीवन के संयम के सपने, अब तो मूर्त रूप कर दो तुम, जिससे हो जाए विदग्ध यह उच्छृङ्खल जीवन अविचारी; क्या न सुनोगे विनय हमारी ? ३ तुम जानो हो, अकथ वेदना के झूले में भूले हैं हम, इतना तो प्रसाद दो जिससे मिट जाये जीवन-अंधियारी; क्या न सुनोगे विनय हमारी ? बासठ