पृष्ठ:अपलक.pdf/७८

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अपलक ज्ञान, विराग, जोग से सूना यह अस्तित्व रहा है अब तक, पर अब तो गुण-बन्धन डालो,जीवन में, हे अलख मुरारी ! क्या न सुनोगे विनय हमारी ? ५ यही जनम की साध है कि तुम कर दो संयत शोणित-ताण्डव, इस विकराल रास-रत-पाति से हम हारे, चेतनता हारी; क्या न सुनोगे विनय हमारी ? ६ यदि यह सब संभव न हो सके, तो मिच जाने दो ये आँखें, इस अनुताप ताप में हे प्रिय ! अब क्यों झुलसे जीवन-क्यारी ? क्या न सुनोगे विनय हमारी ? श्रीगणेश कुटीर, प्रताप, कानपुर, दिनाङ्क २१ दिसम्बर १९३६ श्रग्नि दीक्षा काल तिरसठ