पृष्ठ:अपलक.pdf/७९

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उड़ गए तुम निमिष भर में उड़ गए तुम निमिष भर में, रह गई अनिमेष दृग-टक, रह गए लीला तुम्हारी निरखते सब लोग अपलक । ? तुम चले; उमड़ा इधर इन हग-पुटों में अमित पानी, खो गई सुधि, जब हृदय ने उत्क्रमण की बात जानी; 'सन्तु पन्थान : शुभास्ते-कह सकी यह भी न वाणी तोड़ कर सव बंध तुम तो चल दिये इतने अचानक ! उड़ गये तुम निमिष भर में, रह गई अनिमेष दृग-टक ! २ पूछता हूँ: आज किसने पीजरे का द्वार खोला ? तोड़ रे, दिक्-काल-बन्धन, आ उड़े, यो कौन बोला ? उड़ चले किसके कहे तुम छोड़ पिंजर रूप चोला ? और, अब आकर मिलोगे क्या अचानक ? और कब तक? उड़ गए तुम निमिष भर में, रह गई अनिमेष दृग-टक ! ३ उस क्षणिक संयोग की अब उठ रहीं स्मृतियाँ हृदय में; छा रही हैं आज शत-शत स्मरण-आवृतियाँ हृदय में, चौंसठ