पृष्ठ:अपलक.pdf/८०

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अपलक तुम्ही तुम हो आज तो सब और जीवन के निलय में; बन अपार्थिव, आज तुम तो, छा गए सब ओर औचक ! उड़ गए, तुम निमिष भर में, रह गई अनिमेष दृग-टक ! कहाँ-कहाँ तुम्हें न देखू ? साँझ में तुम, पात में तुम, शरद् में, हेमन्त में तुम, ग्रीष्म में, बरसात में तुम; वर्ष में तुम, मास में तुम, दिवस में तुम, रात में तुम; कौन कहता है कि तुमको कर चुका है भस्म पावक ? आज तो मैं लख रहा हूँ तब छटा सब ओर अपलक ! ५ विहँसते हो तुम क्षितिज में; विचरते हो गगन में तुम मम श्रवण में, प्राण में तुम; छा रहे हो नयन में तुम क्या उड़े हो बाँध मम मन निज गगन-चर चरण में तुम ? तब अमूर्त स्वरूप पर अब सब रहा है भ्यान-त्राटक ! आज तो मैं खख रहा हूँ तव छटा सब ओर इक टक ! बरेजी, केन्द्रीय कारागार, दिना १५ जनवरी १६ भाई रणजित् सीताराम परिरत के महाप्रयाय का समाचार पाकर । पैसठ