पृष्ठ:अपलक.pdf/८२

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अपलक अपवादों के ब्रण न कर सके मेरे लोचन गीले-गीले मैं तो तेरा कहलाता हूँ ! मैं क्यों इस जग का कहलाऊँ ? तेरा-मेरा नाता क्या है ? यह, जग को क्यों कर समझाऊँ ? जब मेरी सुकुमार भावना तुझ में ही केन्द्रित हो आई, मेरी स्नेह-साधना ही जब तुझ में अपने को खो आई; जब कि हुई नभ-मंडप नीचे तेरी मेरी स्नेह-सगाई, तब मैं क्यों न दिवस-निशि तेरे अाराधन के गायन गाऊँ ? तेरा-मेरा नाता क्या है ? यह मै जग को क्या समझाऊँ ? ५ लोग कहेंगे : मैंने ढूँढा क्यों निज पीतम साँझ हुई जब ? इतना अवसर बिता दिया क्यों मैने यों ही करते अब-तब? क्या उत्तर दू? समझ सकेंगे क्या ये जग जन मेरा मतलव ? इन अंधों के आगे रोकर मैं क्यों अपने नयन गँवाऊँ ? तेरा-मेरा भेद-भरम यह, इस जग को क्यों कर समझाऊँ ? केन्द्रीय कारागार, बरेली, दिनाङ्क १७ फरवरी १९४४ सड़सठ