पृष्ठ:अपलक.pdf/८९

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प्रिय, त्वम् मय कर दो मम तन-मन प्रिय, त्वम् मय कर दो मम तन-मन; ऐसा कर दो मुझे कि मैं अब बिसरू अलग-थलग अपनापन; प्रिय त्वम् मय कर दो मम तन-मन । ? मैंने बहुत किया चिन्तन; पर, खुल न सकी यह गाँठ हृदय की; नहीं सुन सका हूँ अब तक ध्वनि अपनी हार, तुम्हारी जय की; आज हारने बैठा हूँ मैं नहीं लालसा मुझे विजय की; निज को खोकर, तुम्हें पा सकूँ, यह वर दो मेरे करुणायन, ग्रिय, त्वम् मय कर दो मम तन-मन, २ जैसे अपने तन में मुझको भासित होता है अपनापन, जैसे अपनों को पा करके यह हिय कर उठता है मन-मन वैसे ही मैं देख सकूँ इस निखिल विश्व के सब जड़-चेतन अपने और पराए के अब कट जाने दो ये सब बन्धन; प्रिय, त्वम् मय कर दो मम तन-मन ।