पृष्ठ:अपलक.pdf/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अपलक ३ ऐसा वर दो कि मैं एक टक संतत तव मुसक्यान निहारू सदा रहो तुम मेरे सम्मुख, मैं तुम पर निज तन-मन वारू, सजन, बदो तुम मुझसे बाजो, तुम जीतो, मैं संतत हारू, टूटें मेरे सीमा-बन्धन, जब श्राओ तुम मम गृह लघु बन; प्रिय, त्वम् मय कर दो मम तन-मन । केन्द्रीय कारागार, बरेली, दिनाङ्क २३ दिसम्बर १९४३ पचत्तर