पृष्ठ:अपलक.pdf/९१

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पारण, तुम्हारे कर के कंकण प्राण, तुम्हारे कर के कंकण,- मानो मेरे बहुत पास ही आज बज उठे खन-खन,खन-खन ! प्राण, तुम्हारे कर के ककरा। १ मैंने नयनोन्मीलन करके इधर-उधर, सब ओर निहारा, पर, लोचन-गत हुई मुझे तो यह प्राचीरवती दृढ़ कारा ; मेरी काल-कोठरी सूनी; अर्गल-बद्ध द्वार बेचारा ; ना जानें, भा गया कहाँ से तव कंकण-किकिणि का सिजन ? प्राण, तुम्हारे कर के कंकण । २ बजा रहे हो अन्तर में क्या ये भूषण , ओ हृदय-निवासी ? बलि जाऊँ! इससे तो मेरी बढ़ जाती है और उदासी 3 श्रवण-संस्मरण ये आए हैं मुझे लगाने स्वन की फाँसी : भक्चति-संस्मृति बढ़ा रही है यह मेरा दूभर सूनापन ! प्राण, तुम्हारे कर के कंकण । छिहत्तर