पृष्ठ:अपलक.pdf/९२

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प्रपलक हग-गत स्मृति तो थी ही, पर, अब जाग उठे ये श्रवण-संस्मरण । औ' ये स्पर्श नासिका, रसना, सभी, कर उठे स्मरण-अनुकरण ; आज बने मेरे परिपन्थी, मुझ बेबस के सकल उपकरण, मुझसे ही विद्रोह कर चले मेरे ये लालित इन्द्रिय-गण ! प्राण, तुम्हारे कर के कंकण। मेरा स्पर्शन-स्मरण कर रहा, प्राण, तुम्हारा मधु आलिंगन ; मेरी यह रसमा रस भीनी स्मरण कर रही अधरामृत-कण; भासा को हैं स्मरण अभी तक, प्रिय, तव अंगराग के स्मर-क्षण औ' मँडराता ही रहता है, अहनिशि स्मरण मत्त यह मम मन , प्राण, तुम्हारे कर के कंकण । केन्द्रीय कारागार, बरेली, दिनाङ्क २१ दिसम्बर १६४३ सतहत्तर