पृष्ठ:अपलक.pdf/९५

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तुम न आना अतिथि बनकर तुम न आना मम भवन, प्रिय, आज मेरे अतिथि बनकर, तुम नहीं हो अतिथि, तुम हो नित्य गृहपति मुदित मनहर, तुम न आना अतिथि बनकर ! १ कमल-दल, नव मधुकरी को, क्यों अतिथि अनजान मार्ने ? क्यों न अलि-गुजार को वे निज समर्पण तान मार्ने ? और, तुमको भी, कहो, क्यों अतिथि मेरे प्राण मार्ने ? क्या पराए हो गए तुम, जो हुए हो दूर क्षण भर ? तुम सदा मम प्राण मनहर ! २ समय-पट-आवरण में दुर, तुम बने कब से अतिथि मम ? काल-सीमा क्यों बने, बोलो सजन, सीमा-परिधि मम ? गूंजते हैं शून्य मभ में मन्द्र सन्तत स्वर 'न-इति' मम ? क्या करेगा यह बिचारा काल-दिक्-श्रावरण तनकर ? ? तुम न आना अतिथि बमकर ! अस्सी