पृष्ठ:अपलक.pdf/९८

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अपलक ३ इन्हें शत्रु कहूँ ? किंवा कहूँ इन्हें निज मीत ? इनके बिना न होती मानवता मनोनीत ! तऊ, ये, उँडेलि आग, करि रहे मोहि भीत, मुलसि भयो है मेरौ मन-हंस कारौ काग !! माई, मेरे भौन लगी अतुल, प्रचण्ड आग ! केन्द्रीय कारागार, बरेली, दिनाक १७ अगस्त १६४४ तिरासी