पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८ अप्सरा विकार को जैसे वह समझ रही थी। पर उसकी चेष्टाओं में किसी प्रकार की भावना न थी। क्रमशः दो-तीन गाने हो गए। दूसरी तरफवाली कतार खत्म होने पर थी। एक-एक संगीत की बारी थी। कारण, कुवर साहब शीघ्र ही सब सचायक्रों का गाना सुनकर चले जानेवाले थे। इधर की कतार में कनक का पहला नंबर था। फिर उसकी माता का कुवर साहब उसके गाने के लिये उत्सुक हो रहे थे और अपने पास के मुसाहबों से पहले ही से उसके मजे हुए गले की तारीफ कर रहे थे और इस प्रतियोगिता में सबको वही परास्त करेगी, इसका निश्चय भी दे रहे थे। इसके बाद, उबर साहब के जल्द उठ आने का एक और कारण था और इस कारण में उनके साथ कनक का भी उनके बँगले पर आना निश्चित था। उसकी कल्पना कनक ने पहले ही कर ली थी और लापरवाही के कारण मुक्ति का कोई उपाय भी नहीं सोचा था। कोई युक्ति थी भी नहीं। एक राजकुमार था, अब उससे वह निराश हो चुकी थी। राजकुमार के प्रति कनक का क्रोध भी कम न था। फर्श विछा था। ऊपर इंद्रधनुष के रंग के रेशमी थानों की, बोच में सोने की चित्रित ची में उन्हीं कपड़ों को पिरोकर नए ढंग की चाँदनी बनाई गई थी। चारो तरफ लोहे के लढे गड़े थे, उन्हीं के सहारे मंडप खड़ा था। लोहे की उन कड़ियों में वही कपड़े लपेटे थे। दो-दो कड़ियों के बीच एक तोरण उन्हीं कपड़ों से सजाया गया था। हाल १०० हाथ से भी लंबा और ५० हाथ से भी चौड़ा था। लंबाई के सीधे, सटा हुआ, पर मंडप अलग, स्टेज था। स्टेज ही की तरह सजा हुमा । फुट-लाइट जल रही थी। बजानेवाले इंगस के भीतर से बजा रहे थे। कुवर साहब की गद्दी के दो-दो हाथ के फासले से सोने की कामदार छोटी रोलिंग चारों तरफ से थी। दोनो बराल गुलाव-पाश, इन्नदान, फूलदान आदि सजे हुए थे। गट्टी पर रेशमी मोटी चादर बिछी थी, चारो तरफ एक-एक हाथ सुनहला काम था, और पन्ने तथा हीरे की कनियाँ जड़ी हुई थी, दोनो बाल दो