पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१५७

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१५० अप्सरा को तकलीफ हो रही थी । सर्वेश्वरी अत्यंत सुंदर होने पर भी तारा का बड़ी कुत्सित देख पड़ी। उसके मुख की रेखाओं के स्मरणमात्र से तारा को मय होता था। अपने चरित्र बल से सर्वेश्वरी के विकृत परमाणुओं को रोकती हुई जैसे मुहूर्त मात्र में थककर ऊब गई हो । तब तक कनक का ड्राइवर मोटर ले आया। पहले सर्वेश्वरी तारा को भी स्नेह करना चाहती थी, क्योंकि दीदी का परिचय कनक ने सबसे पहले दिया था ; पर हिम्मत करके भी तारा की तरफ स्नेहभाव से नहीं बढ़ सकी, जैसे ताय की प्रकृति उससे किसी प्रकार का भी दान स्वीकृत करने के लिये तैयार नहीं, उसे उससे परमार्थ के रूप से जो कुछ लेना हो, ले। कनक ने दीदी की ऐसी मूर्ति कमी नहीं देखी, यह वह दीदी न थी। कनक के हृदय में यह पहलेपहल विशद भावना का प्रकाश हुआ। सर्वेश्वरी इतना सब नहीं समझ सकी। समझी सिर्फ अपनी शुद्रता और तास की महत्ता, उसका अविचल स्त्रीत्व, पति-निष्ठा । आप-ही-आप सर्वेश्वरी का मस्तक झुक गया। उसका विष पीकर तारा एक बार तपकर फिर धीर हो गई। सर्वेश्वरी के हृदय में शांति का उद्रेक हुआ। ऐसी परीक्षा उसने कभी नहीं दी। सिद्धांत वह बहुत जानती थी, पर इतना स्पष्ट प्रमाण अब तक नहीं मिला था। वह जानती थी, हिंदू-घराने में, और खासकर बंगाल छोड़कर भारत के अपर उत्तरी भागों में, कन्या को देवी मानकर घरवाले उसके पैर छूते हैं। कनक की दीदी को उसने देवी और कन्या के रूप में मानकर पास आ पैर छुए। तारा शांत खड़ी रही। चंदन स्थिर, भुका हुआ। ड्राइवर गाड़ी लगाए हुए था। तारा बिना कुछ कहे गाड़ी की तरफ बढ़ी, मन से भगवान विश्वनाथ और कालीजी को स्मरण करती हुई। पीछे-पीछे चांदन चला। सर्वेश्वरी ने बढ़कर दरवाजा खोल दिया । तारा बैठ गई। नौकर ने कैश-बॉक्स रख दिया। चंदन भी बैठ गया। कनक देखती रही। पहले उसकी इच्छा थी कि वह भी दीदी के