पृष्ठ:अप्सरा.djvu/६७

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अप्सरा

मे अपनी श्रृंगार की छवि देखने के लिये आए हो?-कल्पना के प्रासाद-शिखर पर एक दिन एक की देवी के रूप से, तुमने पूजा की, आज दूसरी को प्रेयसी के रूप से हृदय से लगाना चाहते हो ?-- छि:-छिः, संसार के सहस्रों प्राणों के पावन संगीत तुम्हारो कल्पना से निकलने चाहिए । कारण, वहाँ साहित्य की देवी सरस्वती ने अपना अधिष्ठान किया, जिनका सभी के हृदयों में सूक्ष्म रूप से वास है। आज तुम इतने संकुचित हो गए कि उस तमाम प्रसार को सीमित कर रहे हो ? श्रेष्ठ को इस प्रकार बंदी करना असंभव है, शीघ्र ही तुम्हें उस स्वर्गीय शक्ति से रहित होना होगा। जिस मेघ ने वर्षा की जलद-राशि वाष्प के आकार से संचित कर रक्खी थी, आज यह एक ही हवा चिरकाल के लिये उसे तृष्णात भूमि के ऊपर से उड़ा देगी।" ___ राजकुमार त्रस्त हो उठा । हृदय ने कहा, सल्ती की। निश्चय ने सलाह दी, प्रायश्चित्त करो। बंदी की हँसती हुई आँखों ने कहा, साहित्य की सेवा करते हो न मित्र ?-मेरी मा थी जन्मभूमि और तुम्हारी मा भाषा-देखो, आज माता ने एकांत में मुझे अपनी गोद मे, अंधकार गोद में छिपा रक्खा है, तुम अपनी माता के स्नेह की गाद में प्रसन्न होन? ____ व्यंग्य के सहनों शूल एक साथ चुभ गए । जिस माता को वह राज-राजेश्वरी के रूप में ज्ञान की सर्वोच्च भूमि पर अलंकृत बैठी हुई देख रही थी, आज उसी के नयनों में पत्र की दशा पर करुणाश्रु वह रहे थे। एक ओर चंदन की समाहत मूर्ति देखी, दूसरी ओर अपनी तिरस्कृत। राजकुमार अधीर हो गया। देखा. सहस्रों दृष्टियाँ उसकी ओर इंगित कर रही हैं. यही है यही है-इसी ने प्रतिज्ञा की थी। देखा, उसके कुल अंग गल गए हैं। लोग, उसे देखकर, घृणा से मुँह फेर लेते हैं। मस्तिष्क में जोर देकर, आँखें फाड़कर देखा, साक्षात् देवी एक हाथ में पूजाय की तरह थाली लिए हुए, दूसरे में वासित जल, कुल रहस्यों की एक ही मूर्ति में निस्संशय उत्तर की तरह, धीरे-धीरे,