पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१०

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और प्रतिभा से समन्वित वसुबन्धु ने पहले तो अभिधर्मकोशकारिका और. उस पर महान भाष्य की रचना की जो प्रधानतः हीनयानीय सर्वास्तिवाद की सौत्रान्तिक दृष्टि से अभिधर्म का प्रतिपादन है; पुनः उन्होंने कर्मसिद्धिप्रकरण ग्रन्थ लिखा जिसमें सौत्रान्तिक दृष्टि होते हुए भी महायान का प्रभाव लक्षित होता है, मानों वे हीनयान से महायान में परिवर्तन की संक्रमण रेखा पार करते हुए विज्ञानवादी योगाचार दृष्टिकोण का समर्थन कर रहे थे। उनके विकास की अन्तिम अवस्था विशतिका और त्रिंशिका नामक ग्रन्थों से परिलक्षित होती है जिनमें महायान दृष्टि पूर्णतः प्रस्फुटित हुई है। जैसा निशिका पर लिखे हुए शुआन- च्वाङ के विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि ग्रन्थ से सूचित होता है, वसुबन्धु के विज्ञप्तिमात्रता या आलय- विज्ञान सिद्धान्त में महायान का पर्यवसान हुआ। यह दृष्टि सब प्रकार के आलम्बनों से परिशुद्ध होने के कारण 'सम्प्रख्यान' कही जाती है। इसे ही असम्मोप कहते हैं अर्थात् जो सब प्रकार को वाह्य सत्ता से अपरामृष्ट या अछूती हो। विज्ञान ही एक मात्र आलय या मूलाधार है। उसी से मन की उत्पत्ति होती है (मनो ह्यालयसम्मतम्, लंकावतार सूत्र ३७४१२) और आलय से ही तरंग के समान सव चित्तों का जन्म होता है (आलयात् सर्वचित्तानि प्रवर्तन्ति तरंगवत्, लंका- वतार ३७४१४)। वस्तुतः आलयविज्ञान को चित्त ही समझना चाहिए। आलयविज्ञान महा- समुद्र है। उसके आधार पर नाना प्रवृत्तिमूलक पवन के झकोरों से जिन्हें प्रवृत्ति विज्ञान कहते हैं, नाना भांति के मन या चित्त-चैत्त उत्पन्न-विलीन होते रहते हैं। मूलभूत आलयविज्ञान ही एक मात्र अद्वय तत्त्व है। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये पांच स्कन्ध हैं जो वस्तु, इन्द्रिय और विज्ञान इस त्रिक के सन्निपात या सम्मिलन रूप प्रत्यय से उत्पन्न होते हैं। वौद्ध दर्शन की मूल भित्ति ये पंच स्कन्ध और प्रतीत्यसमुत्पाद (कार्य-कारण) का नियम है। रूप दो प्रकार का है, एक भूतरूप और दूसरा उपादाय रूप । पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार भूत हैं। इन चार महाभूतों से जो नाना रूप बनते हैं वे उपादाय रूप हैं। चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, काम पांच इन्द्रियां और इनके रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श पंच विषय मुख्य उपादायरूप हैं। चित्त या मन ही विज्ञान है। वीच के तीन वेदना, संज्ञा, संस्कार भी स्थूल-सूक्ष्म के तारतम्य से उसी चित्त के विषय हैं। पचास संस्कार एक वेदना, एक संज्ञा ये ५२ भेद चैतसिक कहे जाते हैं। इस प्रकार रूप, चैतसिक (वेदना-संज्ञा- संस्कार) और विज्ञान या चित्त, ये तीन ही सर्वास्ति', 'सब कुछ' की व्याख्या है। इनमें रूप स्थूल और चित्त-चैतसिक सूक्ष्म हैं। ये पांच स्कन्व क्षणिक और नित्य परिवर्तनशील हैं। इनमें नित्य और कूटस्थ कोई नहीं है। प्रतीत्य समुत्पाद के नियम के अनुसार ये जन्म लेते और विखरते तथा पुनः अपनी भव शक्ति से जन्म लेते रहते हैं। पाँचों स्कन्ध ही आत्मा हैं, किन्तु ये जड़ हैं। इनके अतिरिक्त चेतन सत्ता वाला नित्य कूटस्थ कोई आत्मा नहीं है। इन्हीं पाँच जड़ उपादानों का एकत्र संघटन शरीर रूप में प्रकट होता है, जैसा माघ ने संकेत किया है- सर्वकार्यशरीरेषु मुक्त्वाङ्गस्कन्धपञ्चकम् । सौगतानामिवात्मान्यो नास्ति मन्त्रो महीभृताम् ।। (शिशुपालवध, २०२८) इस विषय में वसुबन्धु का स्पष्ट कथन है--