पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१०१

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द्वितीय कोशस्यान : इन्द्रिय ८७ पुरुपेन्द्रिय और स्त्रीन्द्रिय कार्यन्द्रिय के भाग हैं। यह दो इन्द्रिय कार्यन्द्रिय से पृथक् नहीं हैं। यह स्प्रष्टव्य विज्ञान के जनक हैं। किन्तु कायेन्द्रिय के एक भाग को पुरुपेन्द्रिय या स्त्रीन्द्रिय कहते है क्योंकि इस भाग का पुंस्त्व या स्त्रीत्व पर अधिक ऐश्वर्य है । स्त्रीत्व स्त्री की आकृति-स्वर- चेप्टा-अभिप्राय है । पुंस्त्व को भी इसी प्रकार समझना चाहिए। काय के इन दो भागों के कारण दो स्वभावों में भेद है। इसलिए हम जानते हैं कि इन दो भागों का इन दो स्वभावों पर आधिपत्य है। अतः वह इन्द्रिय हैं। ३. निकाय-स्थिति, संक्लेश और व्यवदान पर इनका आधिपत्य होने से जीवितेन्द्रिय, वेदनेन्द्रिय और श्रद्धादि पंचक की इन्द्रियता मानी जाती है। १. जन्म से मरणपर्यन्त निकायसभाग की स्थिति पर जीवितेन्द्रिय का आधिपत्य है । किन्तु इसका आधिपत्य निकायसभाग-सम्बन्ध पर नहीं है जैसा कि वैभापिक कहते हैं। यह सम्बन्ध मनस् पर ही आथित है। २. संक्लेश पर ५ वेदनाओं का आधिपत्य है क्योंकि सूत्र कहता है कि "सुखावेदना [१०९] में राग अनुशयन करता है, दुःखावेदना में द्वेप, अदुःखासुखा में मोह"-यहाँ सौत्रान्तिकों का वैभापिकों के साथ ऐकमत्य है। निकायस्थितिसंक्लेशव्यवदानाविपत्यतः । जीवितं वेदनाः पंच श्रद्धाद्याश्चेन्द्रियं मताः ॥३॥ ३. श्रद्धादि पंचक-श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समावि, प्रज्ञा का आधिपत्य व्यवदान में है क्योंकि उनके बल से क्लेश का विकभन (विष्कम्भ्यन्ते) और आर्यमार्ग का आवाहन होता है (आवाह्यते)२ आज्ञास्यास्यास्थमाज्ञास्यमाज्ञातावीन्द्रियं तथा। उत्तरोत्तरसंप्राप्तिनिर्वाणाद्याधिपत्यतः ४. निर्वाणादि के उत्तरोत्तर-प्रतिलंभ में इनका आधिपत्य होने से अनाज्ञातमाशास्या- मीन्द्रिय, आज्ञेन्द्रिय, आज्ञातावीन्द्रिय उसी प्रकार इन्द्रिय हैं। २ धम्मसंगणि, ६३३ और अत्यसालिनी, ६४१ से तुलना कीजिए। ३ निकायस्थितिसंक्लेशव्यवदाना [विपत्यतः । (जीवितवित्तिश्रद्धादिपंचकेन्द्रियता मता ॥ ४ जापानी संपादक मध्यमागम १७, ११ का हवाला देते हैं।- संयुत्त, ४.२०८ से तुलना कीजिए: यो सुखाय वेदनाय रागानुसयो सो अनुसैति । १ सुखायां वेदनायां रागोऽनुशेते । दुःखाया द्वेषः । अदुःखा-सुखायां मोहः । 'सुखा' से सौमनस्य भी समझना चाहिए. २.७ देखिए। ५.२३ और ५४ से तुलना कीजिए; योगसूत्र, २.७-८ से भी सुखानुशयी रागः । दुःखा- नुशायी ट्रेपः। लौकिकमार्गगत श्रद्धादिपंचक क्लेशों का विष्कम्भन करते हैं। निवभागीयगत (६.४५सी) श्रद्धादि से मार्ग का आवाहन होता है। जब यह अनानव हैं तब अनानातमाजास्यामि आदि इन्द्रिय (२.९ वी, ६.६८) होते हैं। ३ परमात्र और शुमान् चाड प्रयम पंक्ति का इस प्रकार अनुवाद करते हैं: "निर्वाणादि, उत्तरो-