पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१०२

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८८ 1 अभिधर्मकोश "तथा" अर्थात् उसी प्रकार यह तीन इन्द्रिय माने जाते हैं। यह तीन अनास्रव इन्द्रिय हैं। इनका लक्षण २.१० ए-बी में बताया गया है। १. द्वितीय के प्रतिलम्भ में प्रथम का आधिपत्य है। तृतीय के प्रतिलम्भ में द्वितीय का आधिपत्य है। निर्वाण अर्थात् निरुपधिशेषनिर्वाण के प्रतिलम्भ में तृतीय का आधिपत्य है। क्योंकि अविमुक्त चित्त का परिनिर्वाण नहीं होता। [११०] २. 'आदि' शब्द सूचित करता है कि एक दूसरा व्याख्यान है। प्रथम' का उन क्लेशों के क्षय पर आधिपत्य है जो दर्शनहेय हैं ( ५.४) । द्वितीय का उन क्लेशों के क्षय पर आधिपत्य है जो भावनाहेय हैं (५.५ ए) । तृतीय का दृष्टधर्मसुखविहार के प्रति अर्थात् क्लेशविमुक्ति से प्रीति (=सौमनस्य)-सुख (= प्रश्रब्धि-सुख, ८.९ वी) के प्रतिसंवेदन के प्रति आधिपत्य है। (पृ० ११२ देखिए) चित्ताश्रयस्तद्विकल्पः स्थितिः संक्लेश एव च । संभारो व्यवदानं च यावता तावदिन्द्रियम् ॥५॥ केवल २२ इन्द्रिय क्यों परिगणित हैं ? यदि आप 'इन्द्रिय' उसको मानते हैं जिसका आधिपत्य है तो अविद्या और प्रतीत्यसमुत्पाद (३.२१) के अन्य अंग इन्द्रिय होंगे क्योंकि हेतु (अविद्यादि) का आधिपत्य कार्य (संस्कारादि) पर है। इसी प्रकार वाक्-पाणि-पाद-पायु-उपस्थ का भी वचन। आदान, विहरण (=चंक्रमण), पुरीपोत्सर्ग, आनन्द के प्रति इन्द्रियत्व होगा।' हमारा उत्तर है कि जिस अर्थ से भगवत् ने २२ इन्द्रियाँ कहीं हैं उस अर्थ से इस सूची में अविद्यादि का अयोग है । इन्द्रियों की संख्या नियत करने में भगवत् ने निम्न बातों का विचार किया है:- ५. चित्त का आश्रय, चित्त के आश्रय का विकल्प, स्थिति और संक्लेश, व्यवदान-संभार और व्यवदान--एतावत् इन्द्रिय है। तर मार्ग के प्रतिलम्भ में उनका आधिपत्य होने से"। तिब्बती निर्वाणाधुत्तरोत्तर-प्रति- लम्भेऽधिपत्यतः। धम्मसंगणि, २९६, ५०५, ६५३ नेतिप्पकरण, १५, ६० काम्पेण्डियम, पृ० १७७. आज्ञाताचीन्द्रिय अर्हत्व से मिश्रित है। इसमें क्षयज्ञान और अनुत्पादज्ञान संगृहीत हैं। यह ज्ञान कि प्लेशों का क्षय हो गया है और उनका अब और उत्पाद नहीं होगा, इत्यादि (६.४५ नेत्तिप्पकरण, पृ० १५) । वह क्लेशविमुक्ति और संतान-विमुक्ति से विमुक्त है: अतः उसका परिनिर्वाण या निरुपधिशेषनिर्वाण में आधिपत्य है। १ सांस्यों का आक्षेप--सांख्यकारिका, ३४. २ चित्ताश्रयस्तद्विकल्पः [स्थितिः संक्लेश एव च संभारो व्यवदानं च यावदेतावदिन्द्रियम् ॥ व्या० ९८.१] समयप्रदोपिका में इस फारिका संख्या दो है।