पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

९४ अभिधर्मकोश है जिसका शील यह जानता है (अवितुम्) कि सत्य आज्ञात है। वास्तव में जब आर्य को क्षयज्ञान और अनुत्पाद-ज्ञान का लाभ होता है तब यह यथाभूत जानता है कि "दुःख आज्ञात है, मुझे और कुछ ज्ञेय नहीं है" इत्यादि । [११८] हमने इन्द्रियों के विशेष लक्षणों का निर्देश किया है। अब उनके भिन्न स्वभाव को बताना चाहिए : क्या वह अनासव हैं (९ वी-डी), विपाकज हैं (१०-११ वी), कुशल हैं (११ सी-डी) ? वह किस धातु के हैं (१२) उन्का प्रहाण कैसे होता है (१३) ? कितने सास्त्रव है ? कितने अनासव हैं ? ९ बी-डी. तीन अमल हैं; रूपीन्द्रिय, जीवितेन्द्रिय और दो दुःख (दुःख और दौर्मनस्य) सासव है; ९ द्विविध हैं। १. अन्तिम तीन इन्द्रिय एकान्त अमल या अनासव हैं । मल और आस्रव समानार्थक रूपी इन्द्रियों की संख्या सात है : चक्षुरादि पांच इन्द्रिय और पुरुषेन्द्रिय-स्त्रीन्द्रिय, क्योंकि यह सात इन्द्रिय रूपस्कन्ध में संग्रहीत हैं । जीवितेन्द्रिय, दुःखेन्द्रिय और दौर्मनस्येन्द्रिय के साथ मिलकर कुल दस इन्द्रिय एकान्त सारव हैं। मनस्, सुखेन्द्रिय, सौमनस्येन्द्रिय, उपेक्षेन्द्रिय, श्रद्धादि (श्रद्धा, वीर्यादि) पंचक, यह ९ इन्द्रिय सानव-अनाव दोनों हो सकते हैं। २. अन्य आचार्यों के अनुसार (विभाषा, २, पृ०७, कालम ३) श्रद्धादि पंचक एकान्त अनास्रव हैं क्योंकि भगवत् ने कहा है कि "जिसमें इन सब श्रद्धादि ५ इन्द्रियों का सर्वथा सर्वप्रकारेण अभाव है उसको मैं बाह्य कहता हूँ, वह पृथग्जन के पक्ष में अवस्थित है । अतः जिसमें यह होते हैं वह आर्य है । अतः यह अनास्रव हैं । [११९] यह वचन ज्ञापक नहीं है क्योंकि भगवत् यहां उस युद्गल का उल्लेख करते हैं जिसमें अनानव श्रद्धादि पंचक का अभाव है। वास्तव में इस वचन के पूर्ववर्ती बचन में भगवा श्रद्धादि पाँच इन्द्रियों की दृष्टि से आर्य पुद्गल का व्यवस्थान करते हैं। अतः वह आर्यों के विशेष ५ इन्द्रियों का अर्थात् अनास्त्रव पंचेन्द्रिय का ही उल्लेख करते हैं। जिनमें इनका अभाव है ५ऐसा प्रतीत होता है कि परमार्थ का शुआन चाड से मतभेद है। १ अमलं त्रयम् । [रूपाणि जीवितं दुःखे सास्त्रवाणि नव द्विधा व्या० १०२,११] २ जापानी संपादक इस विषय में हरिवर्मन् के ग्रंथ का (नजियो १२७४) उल्लेख करते हैं। 3 जापानी संपादक के अनुसार महीशासक । कथावत्यु, १९, ८ के हेतुवादिन और महिंसासक । -३.६ से भी तुलना कोजिए। ४ संयुत्त, ५.२०४: यस्स खो भिक्खये इमानि पंचिन्द्रियाणि सम्येन सव्वं सब्बया सव्वं नस्थि पंचमान भिक्षाव इन्द्रियाणि । कतमानि पंच । श्रद्धेन्द्रियं यावत् प्रक्षेन्द्रियम् । एषां पंचानों देखिए इन्द्रियाणां तीक्ष्णत्वात् परिपूर्णत्वादहन भवति । ततस्तनुतरम दुतरेरनागामी भवति । ततस्तनुतरं दुतरः सकदागामी । ततस्तनुतरम दुतरः स्रोत आपः। ततोऽपि तनुतरै दुतर- धर्मानुसरो । ततस्तनुतरं दुतरः श्रद्धानुसारी । इति हि भिक्षव इन्द्रियपारमिता प्रतीत्य