पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१०९

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द्वितीय कोशस्थान : इन्द्रिय ९५ वह स्पष्ट हो पृथग्जन है । अयवा यदि इस वचन में पंचेन्द्रियों का सामान्यतः उल्लेख है तो हम कहेंगे कि पृथग्जन द्विविध हैं (विभाषा, २, पृ०८, कालम २ और कालम : बाह्यक और आभ्यन्त- रक । पहले ने कुशलमूल का समुच्छेद किया है (४.७९); दूसरे का कुशलमूल असमुच्छिन्न है। प्रथम को लक्ष करके भगवत् कहते हैं कि "मैं उसको वाह्यक कहता हूँ, वह पृथग्जन-पक्ष में अवस्थित है। "३ पुनः सूत्र के अनुसार धर्मचक्र प्रवर्तन (६.५४) के पूर्व भी लोक में तीक्ष्णेन्द्रिय, मन्येन्द्रिय, मृद्विन्द्रिय सत्व होते हैं। अतः श्रद्धादि इन्द्रिय अवश्यमेव एकान्त अनास्रव नहीं हैं। [१२०] अन्ततः भगवत् ने कहा है कि “यदि मैं श्रद्धादि पंचेन्द्रिय का प्रभव, अन्तर्वान, आस्वाद, आदीनव, निःसरण न जानता तो मैं सदेवक, समारक, सब्रह्मक लोक से और सश्रमण- ब्राह्मणिक प्रजा से मुक्त, निःसृत, विसंयुक्त, विप्रयुक्त न होता और विपर्यास से अपगत चित्त से बिहार न करता .. '।' किन्तु आस्वाद, आदीनव, निःसरण से विमुक्त अनास्रव धर्मों का यह परीक्षा-प्रकार नहीं है। अतः श्रद्धादि पंचेन्द्रिय सास्रव-अनास्रव दोनों हैं। विपाको जीवितं द्वेषा द्वादशान्त्याप्टकाद् ऋते । दौर्मनस्याच्च तत्त्वेक सविपाकं दश द्विवा ॥१०॥ मनोऽन्यवित्तिश्रद्धादीन्यष्टकं कुशलं द्विया। दौर्मनस्यं मनोऽन्या च वित्तिस्त्रेचान्यदेकधा ॥११॥ इन्द्रियों में कितने विपाक (२.५७ सी-डी) है, कितने विपाक नहीं हैं ? २ १० ए. जीवितेन्द्रिय सदा विपाक है। केवल जीवितेन्द्रिय (२.४५ ए-वी) सदा विपाक है। १. आक्षेप । जिस मायुः संस्कार (नीचे पृ. १२२ देखिए) का अर्हत् भिक्षु अधिष्ठान करता है, जिसकी स्थापना करता है (स्थापयति, अधितिष्ठति) वह स्पष्ट ही जीवितेन्द्रिय है। इस प्रकार अधिष्ठित, अवस्थित जीवितेन्द्रिय किस कर्म का विपाक है ? फलपारमिता प्रज्ञायते । फलपारमितां प्रतीत्य पुद्गलपारमिता प्रज्ञायते । यस्यमानि पंचेन्द्रि- याणि सर्वेण सर्वाणि न सन्ति तमहम् बाह्यम् पृथग्जनपक्षावस्थितं वदामि ! [व्या० १०३.१] विज्ञानकाय, २३.९, फोलिओ ६ ए-८ में वृद्धि के साथ यह सूत्र उद्धृत है। संयुक्त, ५,२०० से तुलना कीजिए। २ दो प्रकार के पृथग्जन, अन्य और कल्याण पर सुमंगलविलातिनी, पृ.५९ से तुलना कीजिए। 3 ब्रह्मावोचत् । सन्ति भदन्त सत्वा लोके वृद्धास्तीक्ष्णेन्द्रिया अपि मध्येन्द्रिया अपि महिन्द्रिया अपि [व्या० १०४.४] ।-दीघ, २.३८, मज्झिम, १.१६९ से तुलना कीजिए। कथा- वत्यु में दीघ, २.३८ उद्धृत है (......तिक्सिन्द्रियमुदिन्द्रिये......) महावस्तु, ३.३१४; ललित, ३१५, दिव्य, ४९२, मत्सालिनी, ३५॥ १ संयुक्तागम, २६, ४–संयुत्त, ५.१९३ और मागे से तुलना कीजिए ।-विभापा, २, १०. २ विभंग, पृ. १२५ से तुलना कीजिए; विभाषा, १४४, ९. 3 विपाको जीवितम्-जीवन और मरण पर २.४५ देखिए। पदहन निसरायःसंस्कारान् स्यापयति तज्लोवितेन्द्रियं फस्य विपारः ।