पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/११३

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द्वितीय कोशस्थान इन्द्रिय वैभाषिक' कहते हैं : भगवत् यह दिखाने के लिए उत्सर्ग और अधिष्ठान करते हैं कि उन्होंने स्कन्धमार और मरणमार पर विजय प्राप्त की है । वोधिवृक्ष के नीचे भगवत् ने प्रथम याम में देवपुत्र मार को निर्जित किया और तृतीय याम में क्लेश मार को निर्जित किया (एकोत्तरिका, ३९, १) । १० ए-जी. १२ दो प्रकार के हैं। कौन १२? १० बी-सी. अन्तिम आठ और दौर्मनस्य को वर्जित कर ।६ [१२५] जीवितेन्द्रिय जो एकान्त विपाक है और ९ जिनका यहां निर्देश है (१० वी-सी) और जो सदा अविपाक हैं, इनसे अन्य १२ इन्द्रिय द्विविध है । वह कभी विपाक हैं, कभी अविपाक हैं। यह रूपी इन्द्रिय, मन-इन्द्रिय और दौर्मनस्येन्द्रिय से अन्यत्र चार वेदनेन्द्रिय हैं । १. सात रूपी इन्द्रिय (चक्षु.. • पुरुषेन्द्रिय) विपाक नहीं हैं क्योंकि वह औपचयिक (१.३७) हैं । अन्य विपाक हैं। २. मन-इन्द्रिय और चार वेदनेन्द्रिय अविपाक हैं (१) जब वह कुशल-क्लिष्ट होते हैं क्योंकि विपाक अव्याकृत (२.५७) हैं; (२) जब अव्याकृत होते हुए भी वह यथायोग ऐपिथिक, शल्पस्थानिक या नैर्माणिक (२.७२) होते हैं । शेष विपाक हैं। ३. श्रद्धादि पंचक और अनाज्ञातमाज्ञास्यामीन्द्रियादि त्रय, यह अंतिम आठ, कुशल हैं और इसलिए अविपाक है। ४. किन्तु हम पूछते हैं कि यह प्रतिज्ञा कैसे हो सकती है कि दौर्मनस्य कभी विपाक नहीं होता? वास्तव में सूत्र कहता है कि "एक कर्म है जो सौमनस्यवेदनीय है, एक कर्म है जो दीर्मनस्य- वेदनीय है, एक कर्म है जो उपेक्षावेदनीय है।" ४ ५ यह विभाषा के छठे मत को मानते हैं। देवपुत्र मार, दलेशमार, मरणमार, स्कन्धमार, धर्मसंग्रह, ८०. महावस्तु, ३. २७३, २८१; शिक्षासमुच्चय, १९८, १०, मध्यमकवृत्ति, ४९ टिप्पणी ४, २२.१०% बोधिचर्यावतार ९.३६ (भगवत् जिन हैं क्योंकि उन्होंने चार मार का धर्षण किया है); यु किया शे ति लूएन २९, एस० लेवी द्वारा अनूदित, सीज अर्हत्स पृ०७ (जे० एस० १९१६, २) । मूर्तियों में (शर, एकोल दे आउत् एत्यूदै १३, २.१९) बुद्ध के पार्श्व भाग में चार मार, नील, पोत, लोहित और हरित हैं-कोशों में ४ मार की सूची, जकरिए गेल. गति. एन्ज, १८८८, पृ०८५३ चाइल्डर्स को भी सूची देखिए (अभिसंस्कार मार को संगृहीत कर ५ मार) नेत्तिप्पकरण में किलेतमार और सत्तमार (=देवपुत्र) हैं। द्वेषा द्वादशऽन्त्याष्टकाद् ऋते । दोर्मनस्याच्च [व्या० १०६.८] १ दुःखेन्द्रिय कभी ऐपिथिक आदि नहीं होता। २ एकोत्तरागम, १२.९---तिपिटक में 'सुखवेदनीय कर्मन्' है। (अंगुत्तर, ४.३८२ इत्यादि) (४.४५ देखिए); सुखवेदनीय, दौमनस्यवेदनीय स्पर्श (संयुत्त, ५.२११ इत्यादि... --४.५७ डी देखिए।