पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/११५

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द्वितीय कोशस्थान : इन्द्रिय वैभाषिक-वीतराग पुद्गल दौर्मनस्येन्द्रिय का व्यावर्तन करते हैं। किन्तु उनमें चक्षुरादिक विपाकभूत इन्द्रियां होती हैं। अतः दौर्मनस्येन्द्रिय विपाक नहीं है । किन्तु हम पूछेगे कि वीतराग पुद्गल विपाकरूप सौमनस्य से कैसे समन्वागत होते हैं ? निस्सन्देह वह समाधिज सौमनस्य से समन्दागत होते हैं : किन्तु यह सौमनस्य कुशल है और इसलिए विपाक नहीं है। उनके अन्य प्रकार का सौमनस्य नहीं होता। सच्ची बात यह है कि इस इन्द्रिय को चाहे जो कुछ भी स्वभाष क्यों न हो, चाहे वह विपाक हो या न हो, वीतराग पुद्गल सौमनस्येन्द्रिय से समन्वागत होते हैं किन्तु उनमें दौमनस्य के विपाक का अवकाश नहीं है क्योंकि उनमें उसका सर्वथा असमुदाचार होता है । अतः वैभाषिक यह सिद्ध करता है कि. सौमनस्येन्द्रिय विपाक नहीं है। ५. पाठ इन्द्रिय अर्थात् ५ विज्ञानेन्द्रिय, जीवितेन्द्रिय, पुरुषेन्द्रिय, स्त्रीन्द्रिय सुगति में कुशल कर्म का विपाक है; दुर्गति में अकुशल कर्म का विपाक है। मन-इन्द्रिय सुगति-दुर्गति में कुशल-अकुशल का विपाक है । सुखावेदना सौमनस्य और उपेक्षावेदना कुशल कर्म का विपाक हैं । दुःखावेदना अकुशल कर्म का विपाक है। [१२८] हम कहते हैं कि सुगति रूपीन्द्रिय कुशल कर्म का विपाक हैं। सुगति में उभय- व्यंजन के उभय व्यंजन कुशल के विपाक है किन्तु उस स्थान का प्रतिलम्भ अकुशल से होता है।' २२ इन्द्रियों में कितने सविपाक हैं ? कितने अविपाक हैं ? १०सो-११ए. केवल दौर्मनस्य सविपाक है; १० अर्थात् मन-इन्द्रिय, (दौर्मनस्य को वर्जित कर) चार वेदनेन्द्रिय और श्रद्धादि पंचक सविपाक-अविपाक हैं। १. दौमनस्य सदा सविपाक है क्योंकि एक ओर यह अव्याकृत नहीं है क्योंकि यह विकल्प- विशेप (प्रिय, अप्रियादि) (२.८सी) से उत्पद्यमान विकल्प है और दूसरी ओर यह अनालव नहीं है क्योंकि यह समाहित अवस्था में उत्पन्न नहीं होता। १ > . ४ सूत्र के अनुसार जो अवीतराग हैं उनके दो शल्य होते हैं- कायिक दुःख और चतसिक दौर्मनस्य वीतराग' चैतसिक दौर्मनस्य से विमुक्त हैं। ध्या० १०७.२०] २ अतः वीतराग पुद्गल सब विपाकभूत इन्द्रियों से समन्वागत नहीं होते। ३ याद तादृशमस्तु इति । अपरिछिद्यमानमपि तदस्त्येवेति दर्शयति । तस्यास्ति विपाकाव- काशो न दौमनस्यस्य । व्या० १०७.२६] शुमान् चाड ने इसे छोड़ दिया है। १ उभयव्यंजन-भाव अर्थात् दो व्यंजनों का प्रतिलम्भ चित्तविप्रयुक्त धर्म है, २.३५. तत् त्वेकं सविपार्क दश द्विधा । मनोन्यवित्तिश्रद्धादि । व्या० १०८.३, १५] इससे यह गमित होता है कि प्रथम आठ इन्द्रिय और इसी प्रकार अन्तिम तीन सदा अवि- पाक हैं । शुआन् चाड इमको स्पष्ट करने के लिए कारिका की पूर्ति करते हैं। कारिका में 'तत् त्वेकं सविपाकम् है: 'तु एवं' के अर्थ में है और भिन्नक्रम दिखाता है । इस वाक्य का अर्थ इस प्रकार है। तदेक सविपाकमेव केवल शैमनस्य एकान्त 'सविपाक है। २