पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/११७

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द्वितीय कोशस्थान : इन्द्रिय २. रूपधातु से, पूर्वोक्त इन्द्रियों के अतिरिक्त, स्त्रीन्द्रिय-पुरुषेन्द्रिय और दुःखवेदनास्वभाव को दुःख-दौर्मनस्य इन्द्रियों को वर्जित करते हैं : शेप १५ इन्द्रियाँ रहती हैं जो प्रथम दो धातुओं को सामान्य हैं (८.१२ ए-बी)। (ए) रूपधातु में स्त्रीन्द्रिय-पुरुषेन्द्रिय का अभाव है (१) क्योंकि इस धातु में जो सत्व उपपन्न होते हैं उन्होंने काम-संभोग का परित्याग किया है, (२)क्योंकि यह इन्द्रिय कुरूप हैं (१.३०वी-डी)। किन्तु सूत्रवचन है कि “इसका अवकाश नहीं है, इसका स्थान नहीं है कि स्त्री ब्रह्मा हो । इसका अवकाश है, इसका स्थान है कि पुरुष ब्रह्मा हो।" ऐसा प्रतीत होता है कि यह सूत्र कठिनाई उत्पन्न करता है। नहीं । रूपधातु के सत्व पुरुष होते हैं किन्तु पुरुषेन्द्रिय से समन्वागत नहीं होते । उनका अन्य पुरुषभाव होता है जो कामवातु के पुरुषों में होता है : काय-संस्थान, स्वरादि (२.२ सी-डी)। (बी) दुःलेन्द्रिय (कायिक दुःख) रूपधातु में नहीं होता : (१) आश्रय के अच्छ (=भास्वर) होने से, जिसके कारण वहाँ अभिघातज दुःख नहीं होता; (२) अकुशल के अभाव से, जिसके कारण विपाकज दुःख भी नहीं होता । (सी) दौर्मनस्येन्द्रिय का अभाव है : (१) क्योंकि रूपधातु के सत्वों का सन्तान शमथ- स्निग्य होता है (शमयस्निग्धसन्तान), (२) क्योंकि सर्व आघातवस्तु का अभाव है। ३. आरूप्यधातु से पाँच रूपीन्द्रिय (चक्षुरादि) (८.३ सी), सुख-सौमनस्येन्द्रिय को भी वर्जित करते हैं। मन-इन्द्रिय, जीवितेन्द्रिय, उपेक्षेन्द्रिय, श्रद्धेन्द्रिय पंचक शेष रह जाते हैं (१.३१)। मनो वित्तित्रयं त्रेधा विहेया दुर्मनस्कता । नव भावनया पंच त्वहेयान्यपि न त्रयम् ॥१३॥ [१३१] २२ इन्द्रियों में कितने दर्शनहेय हैं ? कितने भावनाहेय? कितने अहेय हैं ? १३.मनस् और तीन वेदना त्रिविध है; दौर्मनस्य दर्शनहेय और भावनाहेय हैं; ९ केवल भावना- हेय हैं; ५ या तो भावनाहेय हैं या अहेय हैं; तीन हेय नहीं हैं।' १. मन-इन्द्रिय, सुख, सौमनस्य और उपेक्षा त्रिविध है। २. दौमनस्य दर्शनहेय और भावनाहेय है क्योंकि अनास्रव न होने से यह सर्वत्र हेय है। ३. ९ इन्द्रिय अर्थात् ५ विज्ञानेन्द्रिय, स्त्रीन्द्रिय पुरुषेन्द्रिय, जीवितेन्द्रिय, और दुःखेन्द्रिय १ विभंग, पृ. ३३६ में तथागतबलों का लक्षण देखिए : अटानमेलमनवकासो यं इत्यि सक्कत्तं कारेय्य मारतं कारेय्य ब्रह्मत्तं कारेय्य नेतं ठानं विज्जतिः.... लोटस, ४०७, शावाने, सेक सांत कान्त, १.२६४ से तुलना कीजिए। २ दीघ, ३. २६२, अंगुत्तर, ४.४०८, ५. १५०. १ [मनो] वित्तित्रयं धा] विहेया दुर्मनस्कता। [नव भावनया पंच न हेयान्यपि न त्रयम्] ॥ [व्या० ११०.१२] १.४० से तुलना कीजिए; विभंग, पृ. १३३.