पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१२१

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द्वितीय कोशस्थान : इन्द्रिय १०७ २ यहाँ आज्ञेन्द्रिय आनन्तर्यमार्ग है ; आज्ञाताबीन्द्रिय विमुक्तिमार्ग है। ३. सकृदागामिफल (६.३६) की प्राप्ति या तो आनुपूर्वक (६.३३ ए) से होती है-- वह योगी जिसने सकृदागामि-फल की प्राप्ति के पूर्व स्रोत-आपत्ति-फल का लाभ किया है -अथवा भूयोवीतराग (६.२९ सी-डी) से होती है- वह योगी जो अनास्रव मार्ग में अर्थात् सत्याभिसमय में प्रवेश करने के पूर्व लौकिक सास्रव मार्ग से प्रथम ६ प्रकार के कामक्लेशों को उपलिखित करता है। अतः जब वह दर्शनमार्ग की प्राप्ति करता है तव वह स्रोत-आपत्ति-फल को प्राप्त किए विना ही सकृदागामी होता है। आनुपूर्वक जो स्रोत आपन्न है सकृदागामि-फल की प्राप्ति या लौकिक मार्ग से करता है जिसमें सत्यों की भावना नहीं होती अथवा अनास्रव, लोकोत्तर मार्ग से करता है। प्रथम अवस्था में सात इन्द्रियों से, मन-इन्द्रिय, उपेक्षेन्द्रिय, श्रद्धादि पंचेन्द्रिय से, फल की प्राप्ति होती है। दूसरी अवस्था में आठ इन्द्रियों से, पूर्वोक्त ७ और आज्ञेन्द्रिय से, फल की प्राप्ति होती है। भूयोवीतराग जो पृथग्जन है ९ इन्द्रियों से सकृदागामि-फल की प्राप्ति करता है। वास्तव में उसको सत्याभिसमय का संमुखीभाव करना चाहिए। अतः अनाज्ञातमाज्ञास्यामीन्द्रिय और आजेन्द्रिय की आवश्यकता है यथा स्रोत-आपत्ति-फल की प्राप्ति के लिए। [१३६] ४, अनागामि-फल की प्राप्ति या आनुपूर्वक करता है--वह योगी जिसने पूर्व फलों की प्राप्ति कर ली है-या वीतराग करता है-वह योगी जो अनास्रव मार्ग में प्रवेश किए विना कामवातु के ९ प्रकार के क्लेशों को उपलिखित करता है अथवा आकिंचन्यायतन पर्यन्त ऊर्ध्व भूमियों के क्लेशों को उपलिखित करता है। आनुपूर्वक अनागामि-फल की प्राप्ति ७ इन्द्रियों से करता है यदि वह लौकिक मार्ग का अनुसरण करता है, ८ इन्द्रियों से करता है यदि वह लोकोत्तर मार्ग का अनुसरण करता है यथा पूर्वोक्त आनुपूर्वक सकृदागामि-फल की प्राप्ति करता है। वोतराग दर्शनमार्ग से ९ इन्द्रियों द्वारा उसी प्रकार अनागामि-फल की प्राप्ति करता है जिस प्रकार पूर्वोक्त भूयोवीतराग सकृदागामि-फल की प्राप्ति करता है। इन सामान्य लक्षणों के विशेष बताना चाहिए। १. वीतराग अनागामि-फल की प्राप्ति दर्शनमार्ग से करता है । सत्याभिसमय के लिए वह या तो तृतीयध्यानस्थ होता है अथवा प्रथम या द्वितीयच्यानस्थ होता है अथवा अनागम्य, ध्याना- अर्हत्वफल की प्राप्ति वज्रोपमसमाधि (६.४४ सी-डी) की अवस्था में होती है। उस अवस्या में वज्रोपमसमाधि-कलाप आनन्तर्यमार्ग, आज्ञेन्द्रिय स्वभाव का होता है । अतः वहां आते- न्द्रिय वर्तमान होता है । क्षयज्ञान-कलाप जो इस अवस्या में विमुक्तिमार्ग, आज्ञातावीन्द्रिय स्वभाव का है उत्पादाभिमुख होता है व्या० ११३.२२]-सौमनस्येन्द्रियादि, उस समा- पत्ति के स्वभाव के अनुसार जिसमें योगी वज्रोपम-समाधि का संमुखीभाव करता है । ३ लौकिक मार्ग का यह वाद कयावत्यु, १.५ और १८.५ में सदोष बताया गया है । वुद्ध- घोष इसको सम्मितीयों का बताते हैं।