पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१२२

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अभिधर्मकोश तर समापत्ति में समापन्न होता है अथवा चतुर्थ ध्यान में समापन्न होता है : निश्रयविशेष से उसका वेदनेन्द्रिय सुखेन्द्रिय, सौमनस्येन्द्रिय, उपेक्षेन्द्रिय में से अन्यतम होता है । इसके विपरीत भूयोवीतराग उपेक्षेन्द्रिय से सकृदागामि-फल की प्राप्ति करता है। २. जो आनुपूर्वक अनागम्य समापत्ति में अनागामि-फल की प्राप्ति के लिए प्रवेश करता है वह यदि तीक्षणेन्द्रिय है तो अनागम्य के नवें क्षण के लिए (नवम विमुक्तिमार्ग) व्युत्थान कर सकता है और प्रथम या द्वितीय ध्यान में प्रवेश कर सकता है। जब वह लौकिक मार्ग से क्लेशों का अपगम करता है तो वह ८ इन्द्रियों से, न कि ७ इन्द्रियों से, फल की प्राप्ति करता है वास्तव में अनागम्य में जिसमें अन्तिम क्षण से पूर्व का क्षण (९वा आनन्तर्यमार्ग) संगृहीत है उपेक्षेन्द्रिय होता है और प्रथम तथा द्वितीय ध्यान में जिसमें अन्तिम क्षण संगृहीत है सौमनस्येन्द्रिय होता है । अत: क्लेश-विसंयोग उपेक्षेन्द्रिय और सौमनस्येन्द्रिय से होता है; जैसे हमने देखा है कि स्रोत आपन्न की व्यवस्था में विसंयोग आज्ञास्यामीन्द्रिय और आज्ञेन्द्रिय से होता है। [१३७] जब वह लोकोतर मार्ग से अर्थात् भावनामार्ग से क्लेशों का अपगम करता है तब ९ इन्द्रियों से फल की प्राप्ति होती है; उक्त इन्द्रियों में आज्ञेन्द्रिय को जो नवम इन्द्रिय होती है जोड़ना चाहिए। आनन्तर्यमार्ग और विमुक्तिमार्ग दोनों मिलकर आज्ञेन्द्रिय हैं।' एकादशभिरहत्वमुक्तं त्वेकस्य संभवात् । उपेक्षा जीवितमनोयुक्तोऽवश्यं त्रयान्वितः ॥१७॥ १७ ए-बी. यह कहा गया है कि अर्हत्व की प्राप्ति ११ इन्द्रियों से होती है क्योंकि किसी एक पुद्गल के लिए ही यह संभव है। मूलशास्त्र (ज्ञानप्रस्थान, १५, १) में पठित है कि "कितनी इन्द्रियों से अर्हत्व की प्राप्ति होती है ?--११ से।" वास्तव में अर्हत्व की प्राप्ति, जैसा हमने कहा है, ९ इन्द्रियों से होती है। शास्त्र कहता है "११ से" क्योंकि इसकी अभिसन्धि अर्हत्व की प्राप्ति से नहीं है किन्तु इसने पुद्गल के प्रति ऐसा कहा है जो इस भाव की प्राप्ति करता है । एक आर्य की परिहाणि अर्हत्व की प्राप्ति में वार बार हो सकती है और वह विविध समा- पत्ति से उसको पुनः प्राप्त कर सकता है; कभी सुखेन्द्रिय से (तृतीय ध्यान), कभी सौमनस्ये- १ फेवल आनुपूर्वक समापत्ति का परिवर्तन करता है, वीतराग नहीं । वास्तव में यदि वीतराग मनागम्य का निश्रय ले सत्याभिसमय का भारंभ करता है तो षोडश चित्त-क्षण में वह मौल ध्यम ध्यान में नहीं प्रवेश करता है। उसका चतुः सत्यदर्शन के प्रति आदर है, ध्यानों के प्रति नहीं, पयोंकि उनको यह अधिगत कर चुका है। इसके विपरीत आनुपूर्वक ध्यानायीं है क्योंकि उसने पूर्व इसको अधिगत नहीं किया है। महत्वस्यै] कादशभिर् [उक्तम्] एकस्य संभवात् । [या० ११६.१६] २