पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१२३

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द्वितीय कोशस्थान : इन्द्रिय न्द्रिय से (प्रयम और द्वितीय ध्यान), कभी उपेक्षेन्द्रिय से (अनागम्य आदि) । किन्तु इन तीन इन्द्रियों का एक काल में समवधान संभव नहीं है। किन्तु यह कैसी बात है कि अनागामिन् के लिए ऐसा प्रसंग नहीं होता? शास्त्र क्यों नहीं अनागामि-फल के लिए वही कहता है जो अर्हत्व-फल के लिए कहता है ? अवस्था भिन्न है । ऐसा नहीं होता कि आर्य अनागामि-फल से परिहीण हो सुखेन्द्रिय से उसकी प्राप्ति करता है। [१३८] दूसरे पक्ष में वीतरागपूर्वी जो कामधातु के सर्व क्लेशों से विरक्त है, जिसने अनागामिफल की प्राप्ति की है, इस फल से परिहीण नहीं हो सकता क्योंकि उसके वैराग्य की प्राप्ति दो मार्गों से हुई है ; वैराग्य का उत्पाद लौकिक मार्ग से हुआ है और स्थैर्य लोकोत्तर मार्ग से (६.५१)। अमुक अमुक इन्द्रिय से समन्वागत पुद्गल कितनी इन्द्रियों से समन्वागत होता है (ज्ञान- प्रस्थान, ६,५; विभाषा, ९०,२) ? १७ सी-डी. जो मन-इन्द्रिय, जीवितेन्द्रिय या उपेक्षेन्द्रिय से युक्त होता है वह अवश्य तीन इन्द्रियों से अन्वित होता है ।' जो इन तीन इन्द्रियों में से किसी एक से युक्त होता है वह अवश्य अन्य दो से युक्त होता है : जब इनमें से एक का अभाव होता है तो अन्य दो का भी अभाव होता है। इनका एक दूसरे के विना समन्वागम नहीं होता । अन्य इन्द्रियों का समन्वागम नियत नहीं है। जो इन तीन इन्द्रियों से अन्वित होता है वह अन्य से युक्त या अयुनत हो सकता है । ३ जो अनागामी द्वितीय ध्यानभूमिपर्यन्त ऊर्ध्वभूमि-वैराग्य से परिहाण होता है वह इस कारण अनागामि-फल से परिहीण नहीं होता; वह अनागामी रहता है ध्योंकि वह कामवातु से विरक्त रहता है। किन्तु जव वह प्रथम ध्यान से परिहीण होता है तब वह अनागामि-फल से परिहोण कहलाता है । इत्त प्रकार परिहीग होकर वह सुखेन्द्रिय से फल को पुनःप्राप्ति नहीं कर सकता क्योंकि यह इन्द्रिय तृतीय ध्यान की है और तृतीय ध्यान उसके लिए संभव नहीं है। क्या यह कह सकते हैं कि सौमनस्येन्द्रिय से फल की पुनः प्राप्ति हो सकती है ? ऐसा हो सकता यदि फलप्राप्ति के लिए अनागम्य समापत्ति में पुनः प्रवेश कर वह अन्तिम क्षण में प्रयम ध्यान में प्रवेश कर सकता। केवल वह योगी मोल ध्यान में प्रवेश कर सकता है जो तीक्ष्णेन्द्रिय है किन्तु यह योगी जिसका हम वर्णन करते हैं मृद्विन्द्रिय है क्योंकि वह परिहोग है। केवल वही योगी परिहीण होते हैं जिनको इन्द्रियां मुई है। क्या परिहीण होकर योगी इन्द्रिय-संचार (६.४१ सी-६१ वी) कर सकता है और उनको तीक्ष्ण कर सकता हैः-निस्सन्देह और जैसा हमने कहा है वह अनागानि-फल की प्राप्ति ८ इन्द्रियों से करता है यदि वह लौफिक मार्ग का अनुसरण करता है और ९ इन्द्रियों से यदि वह लोकोत्तर मार्ग का अवलम्बन करता है क्योंकि प्रत्येक अवस्या में वह सखेन्द्रिय से फल को पुनः प्राप्ति नहीं करता। ५ उपेक्षाजीवितमनोयुक्तोऽवश्यं त्रयान्वितः ।। [व्या० ११८.१७] २न ह्येषामन्योन्येन विना समन्वागमः [व्या० ११८.१९]