पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१२५

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द्वितीय कोशस्थान : इन्द्रिय १८ वी. जो चक्षुरादि इन्द्रियों में से एक से समन्वागत होता है वह अवश्यमेव ५ इन्द्रियों से समन्वागत होता है । जो चक्षुमान होता है वह चक्षुरिन्द्रिय के अतिरिक्त जीवितेन्द्रिय, मन-इन्द्रिय, उपेक्षेन्द्रिय और कायेन्द्रिय से समन्वागत होता है। जो श्रोत्रादि से समन्वागत होता है उसके लिए भी इसी प्रकार योजना करनी चाहिए । [१४०] १८ सी, इसी प्रकार सौमनस्येन्द्रिय से समन्वागत को भी समझना चाहिए।' जो सौमनस्येन्द्रिय से समन्वागत होता है वह इसके अतिरिक्त जीवितेन्द्रिय, मन-इन्द्रिय, उपेक्षेन्द्रिय और सुखेन्द्रिय से भी समन्वागत होता है । किन्तु प्रश्न है कि द्वितीय ध्यान में उपपन्न सत्व जो तृतीय ध्यान का अलाभी है किस प्रकार की सुखेन्द्रिय से समन्वागत है ? ---उत्तर है कि वह तृतीयध्यानभूमिक क्लिप्ट सुखेन्द्रिय से सम- न्यागत । १८ सी-डी. जो दुःखेन्द्रिय से समन्वागत है वह अवश्य सात इन्द्रियों से समन्वागत होता है। दुःखेन्द्रिय से समन्वागत यह सत्व स्पष्ट ही कामधातूपपन्न है । वह अवश्यमेव जीवितेन्द्रिय, मन-इन्द्रिय, कायेन्द्रिय और चार वेदनेन्द्रिय से समन्वागत होता है : दीर्मनस्येन्द्रिय का उसमें अभाव होता है यदि वह वीतराग है । १८ डी-१९ ए. जो स्त्रीन्द्रियादि से समन्वागत होता है यह अवश्य याठ इन्द्रियों से समन्वागत होता है। इसका अर्थ इस प्रकार है : जो स्त्रीन्द्रिय, पुरुषेन्द्रिय, दौर्मनस्येन्द्रिय या श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा इन पाँच में से किसी एक से समन्वागत होता है। [१४१] जो एक व्यंजन से समन्वागत होता है वह इस इन्द्रिय के अतिरिक्त सात इन्द्रियों से जो १८ सी-डी में निर्दिष्ट हैं समन्वागत होता है क्योंकि यह सत्व कामधातूपपन्न है। ४ पंचभिश्चक्षुरादिमान् । [व्या० ११९.२८] १ सौमनस्यी च (व्या० ११९.३४) कामधातु में सुखेन्द्रिय पंचविज्ञानकायिक होता है। प्रथम ध्यान में यह त्रिविज्ञानकायिक (घाण और जिह्वा को वर्जित कर, १.३०६) होता है । द्वितीय व्यान में सुखेन्द्रिय नहीं होता (८.१२) । ततीय ध्यान में सर्जेन्द्रिय मानस होता है (२.७ सी-डी) । अतः यदि द्वितीय ध्यान में उपपन्न सत्व तृतीय ध्यान-समापत्ति को भावना नहीं करता तो वह सुखेन्द्रिय से समन्वागत नहीं होता क्योंकि भूमिसंचार से अर्थात् द्वितीय ध्यान में उपपन्न होने से उसने अधरभूमियों के सुखैन्द्रिय का त्याग किया है। उत्तर : वैभाषिक वाद (सिद्धान्त) के अनुसार अधरभूमि में उपपन्न सव सत्व उपरिभूमिक अप्रहीण क्लिष्ट इन्द्रिय से समन्वागत होते हैं। दुःखी तु सप्तभिः [व्या० १२०.११] [स्त्रीन्द्रियादिमान् ॥अप्टाभिः] [व्या० १२०.१६ में अप्टाभिः के स्थान में अप्टादिभिः पाठ है। ४.८० ए देखिए जहाँ ज्ञान प्रस्थान, १६,१ उद्धृत है। ४.७९ डो पर, प्रथम तीन द्वीपों में इन्द्रियों की संख्या। २ ४