पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१२६

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वास्तव + अभिधर्मकोश जो दौर्मनस्येन्द्रिय से समन्वागत होता है वह इस इन्द्रिय के अतिरिक्त अवश्य इन्हीं सात इन्द्रियों से समन्वागत होता है । जो श्रद्धादि पंचक में से किसी एक से समन्वागत होता है वह वैधातुक सत्व है । वह अवश्य- मेव श्रद्धादि पंचेन्द्रिय से समन्वागत होता है क्योंकि इनका अविनाभाव है और जीवितेन्द्रिय, मन-इन्द्रिय तथा उपेक्षेन्द्रिय से भी समन्वागत होता है । १९ ए-बी. जो आज्ञेन्द्रिय या आज्ञातावीन्द्रिय से समन्वागत होता है वह अवश्य ११ इन्द्रियों से समन्वागत होता है।" अर्थात् : जीवितेन्द्रिय, मन-इन्द्रिय, सुख, सौमनस्य, उपेक्षेन्द्रिय, श्रद्धादि पंचेन्द्रिय और ११ वाँ आज्ञेन्द्रिय या आज्ञातावीन्द्रिय । १९ सी-डी. जो आज्ञास्यामीन्द्रिय से समन्वागत होता है वह अवश्य १३ इन्द्रियों से समन्वा- गत होता है । कामधातु में ही दर्शन मार्ग (६.५५) का आसेवन होता है। अतः इस इन्द्रिय से समन्वागत सत्व कामावचर सत्व है। वह अवश्य जीवितेन्द्रिय मन-इन्द्रिय, कायेन्द्रिय, चार वेदनेन्द्रिय, श्रद्धादि पंचेन्द्रिय और आज्ञास्यामीन्द्रिय से समन्वागत होता है । यह आवश्यक [१४२] नहीं है कि वह दीर्मनस्येन्द्रिय, चक्षुरादि इन्द्रिय से समन्वागत हो । वास्तव में वह 'वीतराग हो सकता है। उस अवस्था में दौर्मनस्य का उसमें अभाव होता है । वह अन्धादि हो सकता है।' हम पाठ का इस प्रकार उद्धार कर सकते हैं: एकादशभिराजाज्ञाताविसान्वयः । आर्जेन्द्रिय से समन्वागत अर्थात शैक्ष कैसे अवश्य सुखेन्द्रिय और सौमनस्येन्द्रिय से समन्वागत जव आर्य का कामवैराग्य होता है तब वह अवश्य सौमनस्यन्द्रिय का प्रतिलाभ करता है। जब उसका द्वितीयध्यानवैराग्य होता है तब वह अवश्य सुखेन्द्रिय का प्रतिलाभ करता है। भूमिसंचार होने पर भी वह प्रतिलब्ध (४.४० के अनुसार ) शुभ का त्याग नहीं करता वह प्राप्त शुभ का त्याग करता है जब फल-प्राप्ति होता है या जब इन्द्रियोत्तापन (४.४०) होता है किन्तु यह इसी प्रकार के उत्कृष्ट शुभ की प्राप्ति के लिए होता है। आज्ञास्यामीन्द्रियोपेतस्त्रयोदशभिरन्वितः ॥ व्या० १२१.१२] किन्तु या वह अव्यंजन हो सकता है ? इससे कठिनाई होती है क्योंकि हमने देखा है (पू. १०५) कि स्त्री-पुरुषेन्द्रिय से विद्युक्त-विकल सत्वों को संवर और फल की प्राप्ति नहीं होतो तथा वैराग्य नहीं होता। एक मत के अनुसार । जिस पुद्गल ने संवर का प्रतिलाभ किया है उसको फल की प्राप्ति होती है। किन्तु व्यंजन-वैकल्य से संबर का त्याग नहीं होता क्योंकि अभिधर्म निर्दिष्ट करता है कि उभयव्यंजन के उदय से ही (४.३८ सी) प्रातिमोक्ष-संबर का त्याग होता है और यह निर्दिष्ट नहीं करता कि व्यंजन-वैकल्य से ऐसा होता है। अथवा क्रममरण से स्त्री-पुरुष न्द्रिय के निरोध होने पर भी उसके लिए मरण में दर्शन मार्ग की उत्पत्ति होती है जिसने निर्वेध-भागीयों का (६.१७) अभ्यास किया है। द्वितीय मत । आज्ञास्यामीन्द्रिय से समन्वागत पुद्गल स्त्री-पुरुषेन्द्रिय से वियुक्त-दिल नहीं होता। किन्तु जब वह पुरुष होता है वह स्त्रीन्द्रिय से समन्वागत नहीं होता वह जब स्त्री होता है तव पुरुषेन्द्रिय से समन्वागत नहीं होता । अतः दोनों इन्द्रियों से आवश्यक समन्वागम नहीं पाहते । [च्या० १२१.२०] १ ? में 3 १