पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१२८

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अभिधम्म में (पृ. १६४)-ऊपर १.१३, ४३ सी और शरवात्स्की को 'दि सोल थियोरी अभिधर्मकोश जो आर्य रागी है, अतः शैक्ष है, अर्हत् नहीं, वह अधिक से अधिक १९ इन्द्रियों से समन्वागत होता है। पुरुषेन्द्रिय या स्त्रीन्द्रिय क्मे वर्जित करना चाहिए; आज्ञातावीन्द्रिय को एकान्त वर्जित कारना चाहिए। इसके अतिरिक्त आशेन्द्रिय को, जब शैक्ष दर्शनमार्गस्थ है और आज्ञारयामी- न्द्रिय को, जब शैक्ष भावनामार्गस्थ है, बजित करना चाहिए। (४.१ ए) २. परमाणु (२२) [१४४] जैसा कि हमने पूर्व कहा है, संस्कृत धर्म, (१.७ ए)रूप, वेदना, संज्ञादि भिन्न लक्षणों के हैं। प्रश्न है कि क्या इनका उत्पाद इसी प्रकार एक दूसरे से स्वतन्त्र होता है अथवा कुछ अवस्थाओं में इनका नियत सहोत्पाद भी होता है। कुछ संस्कृतों का सदा सहोत्पाद होता है। सब धर्मो का संग्रह पंचवस्तुक नय से व्यवस्थापित करते हैं : रूप, चित्त, चैत्त या चित्तसं- प्रयुक्त धर्म (२.२३-३४), चित्तविप्रयुक्त अर्थात् चित्तविप्रयुक्त-संस्कार (२. ३५-४८) और असंस्कृत । यह अन्त्य उत्पन्न नहीं होते (१.५, २.५८) : इनके प्रति सहोत्पाद-नियम का यहाँ विचार नहीं करना है । पहले हम रूपी धर्मों के सहोत्पाद-नियम का विचार करते है । फामेण्टद्रव्यकोऽशब्दः परमाणुरनिन्द्रियः । कायेन्द्रियो नबन्दव्यो वशद्व्योऽपरेन्द्रियः ॥२२॥ २२. कामधातु में जो परमाणु अशब्द, अनिन्द्रिय है वह अष्टद्रव्यक' है । जब इसमें कायेन्द्रिय होता है तब यह नवद्रव्यक होता है; जब इसमें अपरेन्द्रिय होता है तन यह देशद्रव्यक होता है। परमाणु से यहाँ द्रव्यपरमाणु , वह परमाणु जो एक वस्तु है, एक द्रव्य है (१.१३) इष्ट नहीं है किन्तु संघातपरमाणु अर्थात् सर्वसूक्ष्म रूपसंघात इष्ट है क्योंकि रूपसंघातों में इससे सूक्ष्मतर नहीं है 13 १ उक्त इन्द्रियाणां धातुप्रभेदप्रसंगेन (१.४८ सी) आगतानां विस्तरेण प्रभेदः [व्या० १२३.१]। इस आख्या के अर्थ पर नीचे पृ० १४७ देखिए । २ कामेऽष्टद्रव्यकोऽशब्दः परमाणुर् अिनिन्द्रियः । [व्या० ३४.२७] वसुबन्धु धर्मश्री (नजिया, धर्मांतर १२८८), (फा शेंग), २.८, उपशान्त निजियो १२९१) २.९ धर्मत्रात (नजियो १२८७), २.११ का अनुसरण करते हैं: "चार इन्द्रियों में अवस्थित परमाण १० प्रकार के होते हैं। कार्यान्द्रिय प्रकार के अन्यत्र ८ प्रकार के जब गन्ध होता है (अर्थात कामधातु में)" उस भूमि में जहां गन्ध है" । इसी प्रकार का बाद बुद्धघोष के अभियम्म में (अत्यसालिनी, ६३४) और काम्पेण्डियम के ऑफ दि बुद्धिस्ट्स' पृ. ९५३ देखिए । संघभद्र के अनुसार (२३.३, फोलिओ ५२ ए): सप्रतिध रूपों का सर्वसूक्ष्म भाग जिसका पुनः


उपशान्त:

"बाह्य, ८ प्रकार के