पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१३

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१६ रूप है । पंच स्कन्धों में रूप स्कन्ध रूप और शेष वेदना संज्ञा संस्कार विज्ञान नाम की कोटि में आते हैं। 1 ५. षडायतन-मन और पाँच इन्द्रियों वाला स्थूल शरीर षडायतन है। इनमें मन आयतन तो ठीक है, किन्तु इन्द्रियों को पाँच न कहकर चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और रसना इन चार की गिनती होती है और शेप स्थूल तत्त्व को काय आयतन के रूप में कहा जाता है। वैदिक साहित्य में मन, प्राण, वाक्, चक्षु, श्रोत्र, इन्हें पञ्चेन्द्रिय माना जाता था जिनकी कालान्तर में एकादश इन्द्रियों- के रूप में व्याख्या हुई। जिस तत्त्व को भी जन्म का मूल बीज माना जाय, उसकी स्थूल अभिव्यक्ति इन्द्रियों के रूप में होती है। ६. स्पर्श-सुख-दुःखात्मक अनुभव रूप जो वेदना होती है उसकी पूर्वावस्था। जब तक बालक सुख-दुःखादि को समझने में समर्थ नहीं होता तब तक को अवस्था स्पर्श कहलाती है। वस्तुतः वेदना के स्थूल अनुभव से पूर्व की जो अव्यक्तावस्था या वेदनानुभव को सक्षमता है वह स्पर्श है। मन सहित ज्ञानेन्द्रियाँ, उनके विषय और विषयों से इन्द्रिय द्वारा उत्पन्न ज्ञान-इन तीनों के एकत्र होने पर स्पर्श उत्पन्न होता है (शान्तिभिक्षु, महायान, पृ० २६) । ७. वेदना--सुख-दुःख की अनुभूति का नाम वेदना है। यावत् मैथुन-राग का समुदा- चार नहीं होता, तब तक की अवस्था वेदना है। (कोश ३१२३) ८. तृष्णा--रूपादि कामगुण और मैथुन के प्रति राग और भोग की कामना तृष्णा है। ९, उपादान-भोगों की सम्प्राप्ति के लिये पुद्गल का सक्रिय प्रयत्न उपादान है। उस अवस्था को उपादान कहते हैं जिसमें चतुर्विध क्लेशों का समुदाचार होता है। १०. भव-इस प्रकार प्रधावित होकर वह कर्म करता है, जिनका फल अनागत-भव है । इस कर्म को भव कहते हैं, क्योंकि उसके कारण भव होता है (भवस्यनेन) । स्कन्वों के विखर जाने पर फिर समूहन होने की शक्ति भव है। गर्भावस्था से पहले पांच स्कन्धों की जिस अवस्था को अविद्या और संस्कार कहा गया है, सांसारिक वर्तमान जन्म में जिसे तृष्णा और उपादान कहा जाता है, अनागत या आने वाले जीवन में वही भव है। ये तीनों अवस्थाएँ काल-भेद से भिन्न हैं, पर तीनों का धर्म एक ही है (शान्तिभिक्षु, महायान, पृ० २७) । ११. जाति-मरण के अनन्तर प्रतिसन्धिकाल में पांचों स्कन्धों की जो अवस्था होती है उसे जाति कहा जाता है। गर्भ के आरम्भ में जो विज्ञान है, वही अनागत अवस्था में जाति है। १२. जरा-मरण-वर्तमान भव के चार अंग-नामरूप, पडायतन, स्पर्श और वेदना- अनागत-भव के सम्बन्ध में जरा-मरण कहलाते हैं। यह द्वादशांग प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध अभिधर्म शास्त्र की नींव है। नाना बौद्ध नयों में इसकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्याख्याएँ पाई जाती हैं और इसमें अवान्तर भेदपूर्ण दृष्टिकोण भी है। किन्तु इस में सब सहमत हैं कि इस द्वादशांग सूत्र को देशना स्वयं भगवान् बुद्ध ने की थी और वे ही अभिधर्म के मूल उपदेप्टा थे। जैसा वसुबन्यु ने कहा है बुद्ध का सद्धर्म दो भागों में विभक्त है ---आगम और अधिगम (कोन ८:३९)। त्रिपिटक आगम है। सूत्र, विनय, और अभिधर्म उसके तीन विभाग हैं। अधिगम उन धर्मों की संज्ञा है जिनके आचार में परिगृहीत करने और साक्षात्कार से बोधि की