पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१३७

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द्वितीय कोशस्थान : चैत्त १२३ [१५५] १०. समावि चित्त की एकाग्रता है : (अग्र=आलम्बन, १.३३) यह वह धर्म है जिसके योग से चित्त प्रबन्धेन आलम्बन में एकत्र वर्तमान होता है (वर्तते) (८.१) १ [१५६] हम यह कैसे जानते हैं कि यह १० चत्त जिनका भिन्न लक्षण है एक चित्त में सह वर्तमान होते हैं ? चित्त-चत्त का विशेष निश्चय ही सूक्ष्म है । चित्त-चैत्तों का यह विशेष उनके प्रबन्धों में भी दुर्लक्ष्य है । फिर क्षणों का क्या कहना जिनमें उन सव का अस्तित्व होता है । यदि बहुरस वाले रूपी ओषधियों के भेद जो इन्द्रियग्राह्य है दुःपरिच्छेद (दुरवधान) [व्या १२८.१२---मूलमें दुरवधारा तथा पाद टिप्पणी में दुरवधाना पाठ है ] होते हैं तो बुद्धि- साहय अरूपी धर्मो का क्या कहना ? (चैत्तों की सूक्ष्मता, मिलिन्द ६३.८७, अ थसालिनी, १४२, कोश, ९, २८४) फोश में रोजेन वर्ग ने देखा है। एम० ए० वेली जिन्होंने जापानी विवृतियाँ देखी हैं इस प्रकार अनुवाद करते हैं: "जिस शिष्य ने अपने पाठ को अच्छी तरह समझ लिया है उसको अपने अनुमोदन की सूचना देना।" (अतः को कोइ)"यह संभव हूँ"(ए. डेबेस्से)---अधिमुक्ति आल- म्बन का गुणावधारण है। यह वह धर्म है जिसके योग से आलम्बन का अवधारण होता है। यह मनस्कार की प्रथम अवस्था है।---श्वे जन आग काम्पेण्डियम पृ० १७ और २४१ की टिप्पणी अधिमोक्ख पर देखिए: .दि सेटिल्ड स्टेट आफ ए माइन्ड..... इट इज डिसाइडिंग टु एटेन्ड टु दिस, नाट दैर, इस्पेक्टिव आफ मोर काम्पलीकेटेड प्रोसीजर ऐज टु हाट दिस आर दैट अपीयर्स टु बी." संघभद्र (५२ बी १६) : आलम्बन के गुणावधारण (चु को) को अधिमुक्ति कहते हैं। अन्य आचार्यों के अनुसार 'अधि' का अर्थ 'उत्कृष्टता, प्रभुत्व' है। मुक्ति का अर्थ विमोक्ष है। अधिमुक्ति वह धर्म है जिसके योग से चित्त आलम्बन में विना बाधा के अपने प्रभुत्व का प्रयोग करता है। यथा अधिशील।--(५७ बी, ८) अधिमुक्ति एक पृथक् वस्तु है क्योंकि सूत्र कहता है: "अधिमुक्ति के कारण चित्त आलम्बन का गुणावधारण (इन को) करता है।" जब चित्तों का उत्पाद होता है तब सब आलम्बन का गुणावधारण करते हैं (चु); अतः अधिमुक्ति महा- भूमिक है। किन्तु स्थविर कहते हैं : "यह व्यवस्थित नहीं हुआ है कि अधिभुक्ति एक पृथक वस्तु है क्योंकि हम देखते है कि उसका स्वभाव ज्ञान के स्वभाव से भिन्न नहीं बताया गया है। अधिमुक्ति का लक्षण यह है कि चित्त आलम्बन के प्रति निश्चित हो ज्ञान के लक्षण से कोई भेद नहीं है । अतः अधिमुक्ति एक पृथक् वस्तु नहीं है।"--यह यथार्थ नहीं है क्योंकि गुणाव- धारण (चु को) के कारण निश्चय है। कुछ का कहना है: 'अधिमुक्ति अवधारण, निश्चय है।" निश्चय के हेतु (अधिमुक्ति में उसके कार्य का उपचार होता है। यदि ऐसा है तो अधिमुक्ति और अवधारण का समवधान नहीं होगा।--नहीं, क्योंकि यह दो अन्योन्य का अभिसंस्कार करते हैं: प्रतिसंख्या के कारण अधिमुक्ति का उत्पाद होता है। अधिमुक्ति के कारण निश्चय की उत्पत्ति होती है। कोई विरोध नहीं है, अतः उनके सहभू होने में कोई वाया नहीं है।--यदि सर्वचित्त में यह दो हों तो सर्वप्रकार के चित्त अधिमुक्ति और निश्चय होंगे।---यह आक्षेप सारहीन है क्योंकि ऐसा होता है कि अन्य धर्मों का प्रभुत्व होने से उनके कारित्र को उपधात पहुँचता है : अधिमुक्ति और निश्चय होने के लिए वह सूक्ष्म और दुर्लक्ष्य है । १ पंचस्कन्धक; उपपरीक्ष्ये वस्तुनि चित्तस्यैकाग्रता ।