पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१३८

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१२४ अभिधर्मकोश श्रद्धाप्रमादः प्रश्रन्धिरुपेक्षा होरपनपा। मूलद्वयहिंसा च वीयं च कुशले सदा ॥२५॥ अतिविस्तृत कुशलधर्मो की भूमि कुशलमहाभूमि कहलाती है । जो चैत्त इस भूमि से उत्पन्न होते हैं वह कुशलमहाभूमिक' कहलाते हैं : वह धर्म जो सर्व कुशलचित्त में पाये जाते है । २५. श्रद्धा, अप्रमाद, प्रश्रब्धि, उपेक्षा, ह्री, अपत्रपा, मूलद्वय, अविहिंसा, और वीर्य केवल कुशल चित्त में होते हैं, सर्व कुशल चित्त में होते हैं । [१५७] १. श्रद्धा चित्त-प्रसाद है । ...-एक दूसरे मत के अनुसार यह कर्मफल (६.७८ वी) (६ ७३. सी) और सत्य में अभिसंप्रत्यय है । २. अप्रमाद कुशल धर्मों की भावना है अर्थात् कुशल धर्मो का प्रतिलम्भ और निषेवण है।' आक्षेप । कुशल धर्मों का प्रतिलम्भ और निषेवण प्रतिलब्ध और निषेवित कुशल धर्मों से अन्य नहीं है । आप अप्रमाद को एक पृथक् चैतसिक धर्म कैसे कहते हैं ? अप्रमाद कुशल धर्मों में अवहितता है। उपचार से कहते हैं कि यह भावना है। वास्तव में यह भावना-हेतु है । एक दूसरे निकाय के अनुसार अप्रमाद चित्त की आरक्षा है । ३. प्रश्नन्धि वह धर्म है जिसके योग से चित्त की कर्मण्यता, चित्त का लाघव होता है ।। ३ 3 श्रद्धाप्रमादः प्रश्रब्धिरुपेक्षा हीरपत्रपा। मूलद्वयमविहिंसा वीर्य च कुशले सदा ॥ कारिका २५ कोश ६. २९३, ७. १५८ : व्याख्या : क्लेशोपक्लेशकलुषितं चेतः श्रद्धा- योगार प्रसीदति। उदकप्रसादकमणियोगादिवोदकम् । सत्यरत्नकर्मफलाभिसंप्रत्यय इत्यपरे। सत्येषु चतुष... सन्त्येवंतानीत्यभिसंप्रात्ययोऽभिसंप्रतिपत्तिः श्रद्धा [व्या. १२८. १६] । विभाषा, ४२, ११ और प्रकरण के अनुसार : श्रद्धा, वीर्य, ह्री, अपत्रपा, अलोभ, अद्वेष, प्रश्रविध, उपेक्षा, अप्रमाद, अविहिंसा ।--महाव्युत्पत्ति (१०४) में तृतीय मूल (अमोह) का उल्लेख है और मूलों के पश्वात् वीर्य का स्थान है । पंच स्कन्धक भी तृतीय मूल का उल्लेख करता है और उसका क्रम वही है जो महाव्युत्पत्ति का है, इसे अन्तर के साथ कि इसमें उपेक्षा के पहले अप्रमाद गिनाया गया है। चेतसः प्रसादः [च्या० १२८.१६]-ज्ञानप्रस्थान , १, १९ के अनुसार--अन्य शब्दों में श्रद्धा वह धर्म है जिसके योग से (यद् योगात्) क्लेश-उपक्लेश से कलुषित चित्त निर्मल होता हैः यथा उदकप्रसादक मणि के योग से कलुषित जल निर्मल होता है । अत्थसालिनी, ३०४ में यही उदाहरण है। १ पंचस्कन्धक में दिया हुआ वसुबन्धु का व्याख्यान । पुशलानां धर्माणां भावना [च्या० १२८.२०]--भावना का अर्थ 'प्रतिलभ, निपेवण है। यह ७.२७ के अनुसार है। ४.गहासांधिका--अप्रमाद सांवलेशिका धमों से चित्त को रक्षा करता है। अभिधम्म में पस्सद्धि और लहुता में भेद फिया है (धम्मसंगणि, ४०-४३) । अभिधर्म, ऐसा प्रतीत होता है, दोनों को एक मानता है 1-ध्यानों को प्रश्रधि का विवरण ८.९ में है । (अंगुत्तर, ५.३) २