पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय कोशस्थान : चैत्त १२५ किन्तु सौत्रान्तिक" कहते हैं कि सूत्र में कायप्रश्रब्धि भी उक्त है।६ सूत्र कायप्रश्रब्धि का वर्णन करता है यथा कायिकी वेदना का करता है । सर्व वेदना स्वभाव में चैतसिक है । सूत्र सदा उस वेदना को कायिकी कहता है जिसका आश्रय परमाणुसंचयात्मक पंचेन्द्रिय है । यह वह वेदना है जो पाँच विज्ञानकाय (२.७ ए) से संप्रयुक्त होती है। इसी प्रकार पंचेन्द्रियों पर आश्रित चित्त-प्रश्रब्धि, ५ विज्ञानकायों की प्रश्रब्धि 'कायप्रश्रब्धि' कहलाती है। [१५८] सौत्रान्त्रिक उत्तर देता है. इस कायप्रश्रब्धि को संवोध्यंगों में (६.६८) कैसे परिगणित करते हैं ? वास्तव में पांच विज्ञानकाय कामावचर है क्योंकि वह असमाहित है अर्थात् समापत्ति की अवस्था में इनका उत्पाद नहीं होता और बोधि के अंग समाहित (६.७१ ए) होते हैं । अतः हमारे मत से जिस सूत्र का हमने उल्लेख किया है उसमें कायप्रश्रब्धि, कायकर्मण्यता (कायवैशारद्य) (८.९) है ह कायप्रश्रब्धि बोध्यंग कैसे है ? वास्तव में कायकर्मण्यता सास्रव है। सौत्रान्तिक–किन्तु यह चित्त-प्रश्रब्धि के-जोबोध्यंग है---अनुकूल है । इस कारण इसको वोध्यंग कहते हैं। सूत्र प्रायः इस प्रकार अपने को व्यक्त करता है । यथा सूत्र की शिक्षा है कि प्रोति और प्रीतिस्थानीयधर्म प्रीति-संवोध्यंग हैं (६.७१) ।' सूत्र की शिक्षा है कि प्रतिघ और प्रतिध-निमित्तव्यापादनीवरण (५.५९) हैं २ सूत्र में उक्त है कि दृष्टि, संकल्प, व्यायाम, [१५९] प्रज्ञास्कन्ध हैं (७.७६) । किन्तु संकल्प जो वितर्क-स्वभाव है और व्यायाम जो वीर्यस्वभाव है प्रज्ञा-स्वभाव नहीं हैं किन्तु वह इस प्रज्ञा के अनुकूल हैं इस लिये प्रज्ञा स्कन्ध में उक्त हैं। कायप्रश्रब्धि चित्त-प्रश्रन्धि में हेतु है ; इस लिये तत्सदृश उसके साथ बोधि के अंगों में निर्दिष्ट हैं। ५ जापानी संपादक के अनुसार --पंचस्कन्धक : "प्रशब्धि चित्त और काय की कर्मण्यता है। यह धर्म दौष्ठुल्य का प्रतिपक्ष है।" एस० लेवी सूत्रालंकार, ६.२, बोगिहारा पृ० २९). ६ प्रश्रब्धि संबोध्यंग द्विविध है, चित्तप्रभाब्धि, कायप्रब्धि (प्रकरणपाद, ३.१)---संयुक्ता- तन यापि कायप्रब्धिस्तदपि प्रब्धिसंबोध्यंगमभिज्ञाय संबोधये निर्वाणाय संवर्तते । यापि चित्तप्रअधिस्तदपि संबोध्यंगम् . . .संयुत्त. ५.३ में अधिक संक्षिप्त पाठ है । सौत्रान्तिक कहते हैं कि इस सूत्र के होते आप प्रश्नन्धि को इस एक प्रकार की ही 'चित्त-कर्मण्यता' कैसे कह सकते हैं ? १ व्याख्या सूत्र को उद्धृत करती है : तीथिकाः किल भगवच्छावकानेवमाहुः । श्रमणो भवन्तो गौतम एवमाहा एवं यूयं भिक्षवः पंच नीवरणानि प्रहाय चेतस उपक्लेशकराणि प्रज्ञा दौर्बल्यकराणि सप्त बोध्यंगानि भावयतेति वयमपि एवं ब्रूमः । तत्रास्माकं श्रमणस्य च गौत- मस्य को विशेषो धर्मदेशनायाः। तेभ्यो भगवता एलदुपदिष्टय-पंच सन्ति दश भवन्ति । दश सन्ति पंच व्यवस्थाप्यन्ते। तथा सप्त सन्ति चतुर्दश भवन्ति । चतुर्दश सन्ति सप्त व्यवस्थाप्यन्ते। [व्या० १२९.९]--संयुत्त, ५.१०८ से तुलना कीजिए। २ भगवत् ने कहा है कि ९ आधातवस्तु (अंगुत्तर, ४.४०८) व्यापाद-नीवरण हैं। व्या० १२९.१४ ] जब त्रिस्कन्ध-मार्ग का विचार होता है---शीलस्कन्ध, समाधिस्वन्ध, प्रज्ञास्कन्ध---- तव संकल्प और व्यायाम प्रज्ञास्कन्ध में दृष्टि के साथ, जो अकेले प्रज्ञास्वभाव है, उक्त 4