पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१४१

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द्वितीय कोशस्थान : चत्त १२७ १०. वीर्य चित्त का अभ्युत्साह (चेतसोऽभ्युत्साहः)3 है [व्या १३०.११] । यह चैत्त सर्वकुशलचित्त से संप्रयुक्त होते हैं । मोहः प्रमादः कौसीद्यमाश्रद्धयं स्त्यानमुद्धवः । क्लिष्टे सदैवाकुशले त्वाहीक्यमनपत्रपा ॥२६॥ महाक्लेश धर्मों की भूमि को महाक्लेशभूमि कहते है । [१६१] इस भूमि के चैत्त अर्थात् जो सर्वक्लिष्ट चित्त में होते हैं क्लेशमहाभूमिक हैं । २६ ए-सी. मोह, प्रमाद, कौसीच, आश्रद्धय, स्त्यान और उद्धति सर्वदा और एकान्ततः क्लिष्ट चित्त में होते हैं।' १. मोह अर्थात् अविद्या (३.२९), अज्ञान, अन्धकार । २. प्रमाद, अप्रमाद का प्रतिपक्ष, भावना-विपक्ष, कुशलवों का अप्रतिलम्भ और अनि- पवण । ३. कीसीद्य, वीर्य का विपक्ष । ४. आथद्धध, श्रद्धा का विपक्ष । ५. स्त्यान, कर्मण्यता का विपक्ष (७.११ डी) । अभिवर्म में (नानप्रस्थान, २, ९) कहा है : "स्त्यान क्या है ? काय-गुरुता, चित्त-गुरुता, काय-अकर्मण्यता चित्त-अकर्मण्यता । कायिक-स्त्यान और चित्त-स्त्यान स्त्यान कहलाते हैं।" किन्तु स्त्यान 'चैतसिक' है । कायिक स्त्यान कैसे हो सकता है ? यथा कायिकी वेदना (पृ. १५७ देखिए) ! ६. औद्धत्य चित्त का अत्युपशम (७.११ डी) है यही ६ धर्म है जो क्लेशमहाभूमिक हैं। ४ कुशल क्रिया में अभ्युत्साह; क्योंकि अकुशल क्रिया में चित्त का अभ्युत्साह वीर्य नहीं है किन्तु इसका प्रतिपक्ष कौसीध है । भगवत् ने कहा है : “वाहको (इतो वाहक) का वीर्य कोलीच ही है" (२.२६ ए) पंचस्कन्चक : "वीर्य कुशल क्रिया में चित्त का अभ्युत्साह है। यह कौसोच का प्रतिपक्ष है ।" [व्या० १३०.१४] १ [मोहः प्रमादः कौसीचं आश्रद्धयं स्त्यानमुद्धतिः । सर्वदा क्लिष्ट] हमारे सोर्सेज का पाठ 'सदा है। २ जापानी संपादक की निवृति के अनुसार दर्शनमार्ग से अविद्या का अपराम, भावनामार्ग से अज्ञान का अपगम और अशक्षमार्ग से अंधकार का अपगम होता है। ३ हस्तलिखित पोथियों में अश्रद्धय, अश्राद्धय और आश्रद्धय पाठ मिलते हैं। वोगिहारा को महाव्युत्पत्ति देखिये ८ नृत्यगीतादिश्रृंगारवेषालंकारकायौद्धत्यसंनिश्रयदानकर्मकश्चैतसिको धर्मः [व्या० १३०. २२] !-धम्मसंगणि, ४२९ से तुलना कीजिये 1