पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१४७

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द्वितीय कोशस्थान: चत 3 अनिवृताव्याकृत चित्त में १२ चैत्त होते हैं : १० महाभूमिक, वितर्क, विचार । बहिर्देशकों को यह इष्ट है कि कोकृत्य भी अव्याकृत है, यया स्वप्न में।---अव्याकृत कीकृत्य से संप्रयुक्त अनिवृताव्याकृत चित्त में १३ चैत होंगे। ३० सी-डी. मिद्ध सर्व अविरुद्ध है। जहां यह होता है वहां संख्या अधिक हो जाती है।' मिद्ध (५.४७, ७.११ डी) कुशल, अकुशल, अव्याकृत है । जिस चित्त से यह संप्रयुक्त होता है उसमें २२ के स्थान २३ चैत्त होते हैं जब यह कुशल और कौकृत्य विमुक्त होता है । २३ के स्थान में २४ चैत्त होते हैं जब यह कुशल और कौकृत्य सहगत होता है, इत्यादि । कोकृत्यमिद्धाकुशलान्याचे ध्याने न सन्त्यतः । ध्यानान्तरे वितर्कश्च विचारश्चाप्यतः परम् ॥३१॥ ३१. अतः प्रथम ध्यान में कौकृत्य और मिद्ध यह अकुशल चैतसिक सर्वथा नहीं होते; इससे ऊर्च, ध्यानान्तर में, वितर्क भी नहीं होता:इससे ऊर्ध्व विचार भी नहीं होता। [१६९]प्रथम ध्यान में (१) प्रतिध (५.१),(२) शाठ्य,माया, मद को वर्जित कर क्रोधादि (२.२७), (३) आलोक्य और अनपत्राप्य (२.३२) यह दो अकुशलमहाभूमिक तथा (४) कोकृत्य, क्योंकि दौर्मनस्य (२.८ वी-सी) का वहां अभाव होता है और (५) मिद्ध क्योंकि कव-. डीकार आहार (३.३८ डी) का वहाँ अभाव होता है, नहीं होते । कामधातु के अन्य सर्व चैत प्रथम ध्यान में होते हैं।' द्वितीय ध्यान में ध्यानान्तर में वितर्क भी नहीं होता। और उससे ऊर्व यावत् आरूप्य- धातु में विचार, शाठ्य और माया भी नहीं होते।२ मद वैधातुक (५.५३ सी-डी) है । सूत्र के अनुसार शाठ्य और माया ब्रह्मलोक पर्यन्त होते हैं और उन लोकों से ऊर्ध्व नहीं होते जहां के सत्वों का पर्पत्-सम्बन्ध होता है । महाब्रह्मा अपने पर्षत् में बैठे थे । अश्वजित् भिक्षु ने उनसे प्रश्न पूछा : "कहां चार महाभूतों का अपरिशेप निरोध होता है ?" उत्तर न दे सकने के कारण उन्होंने क्षेप किया : "मैं ब्रह्मा हूँ, महाब्रह्मा हूँ, ईश्वर, कर्ता, निर्माता, स्रष्टा, पालक .. २ हम उद्धार कर सकते हैं: मिद्धं सर्वाविरुद्धत्वादस्ति यत्राधिकं भवेत् । कोकृत्यमिताकुशलान्याये ध्याने न सन्त्यतः । ध्यानान्तरे वितर्कश्च विचारश्चाप्यतः परम् ॥ [व्या० १३५.१५] अतः प्रथम ध्यान के कुशलचित्त में २२ चैत्त होते हैं। आवेणिक और दुष्टियुक्त निवृत्ताव्या- कृत में १८ चैत्त होते हैं; राग-मान-विचिकित्सा संप्रयुक्त चित्त में १९ होते हैं। २ अक्षरार्य : 'अपि' शब्द से प्रदर्शित होता है कि विचार के अतिरित्त शाठच और माया को भी वजित करना चाहिये। 3 जापानी संपादक के अनुसार सद्धर्मस्मृति [उपस्थान] सून, ३३, १० (नजियो ६७९, एम डी मो २४-२७)-विभाषा, १२९, १। यह कह कर कि "मैं महाब्रह्मा हूँ" वह अपने को अन्य ब्राह्मणों से विशिष्ट करता है।