पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१४९

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द्वितीय कोशस्थान : चैत .. अनपत्राप्य परापेक्षया लज्जा का अभाव है। किन्तु इस पक्ष में भी दो अपेक्षा युगपत् कैसे होंगी ? ~~-हम यह नहीं कहते कि आत्मापेक्षा और परापेक्षा युगपत् होती हैं। किसी को जव आत्मा की अपेक्षा करते हुए भी लज्जा प्रवृत्त नहीं होती तव आह्रोक्य होता है जो राग-निष्यन्द है ! जब पर की अपेक्षा करते हुए भी लज्जा प्रवृत्त नहीं होती तब अनपत्राप्य होता है जो मोह-निष्यंद है । इन दो अकुशल धर्मों का विपर्यय ही और अपनाप्य हैं। प्रथम कल्प के अनुसार इनका लक्षण 'सगौरवता, सप्रतीशता, सभयवशवर्तिता,' और 'भयदर्शिता' है; दूसरे कल्प के अनुसार इनका लक्षण 'आत्मापेक्षया लज्जा' ,'परापेक्षया लज्जा' है। कुछ का मत है कि प्रेम और गौरव एक ही वस्तु हैं । ३२ सी. प्रेम श्रद्धा है 13 प्रेम द्विविध है : क्लिष्ट, अक्लिष्ट, (विभाषा, २९, १२) । प्रथम राग है यथा पुत्र कलत्र के लिए प्रेम । द्वितीय श्रद्धा है यथा शास्ता के लिए, सत्पुरुषों के लिए प्रेम । १. एक श्रद्धा है, प्रेम नहीं है अर्थात् दुःख-समुदय सत्यों में श्रद्धा । [१७२] २. एक प्रेम है, श्रद्धा नहीं है अर्थात् क्लिष्ट प्रियता, प्रियतारूमा तृष्णा । ३. एक श्रद्धा और प्रेम उभय है अर्थात् निरोध-मार्ग सत्यों में श्रद्वा । ४, इन आकारों को छोड़कर अर्थात् अन्य चैतसिक, चित्तविप्रयुक्तादि धर्म, न श्रद्धा है न प्रेम । हमारे मत के अनुसार श्रद्धा गुणसंभावना है : प्रियता गुणसंभावनापूर्विका होती है । अतः प्रेम श्रद्धा नहीं है किन्तु श्रद्धा का फल है। ३२ सी. गुरुत्व ही है । हमने पूर्व (३२ ए) बताया है कि गुरुत्व, गौरव सप्रतीशता आदि है। १. प्रत्येक ह्री गौरव अर्यात् दुःख-समुदय सत्य के प्रति हो नहीं है। २. निरोध-मार्ग सत्य के प्रति ह्री गौरव भी है। एक दूसरे मत के अनुसार गौरव सप्रतीशता है; गौरव से लज्जा उत्पन्न होती है जिसे ह्री पाहते है । अतः गौरव जो ह्री का निमित्त है वह ही नहीं है । प्रेम और गौरव के सम्बन्ध में चार कोटि हैं : १ २ पंचस्कन्धक में वसुबन्यु इस लक्षण को स्वीकार करते हैं। ३ प्रेम श्रद्धा--ज्ञानप्रस्थान, १.४(तकाकुसु पृ. के ८७ के अनुमार) [या० १३७.२०] गुरुत्वम् हो:-विभाषा, २९, १३. [व्या० १३८.७] २ क्योंकि सालय धर्मों के लिये गौरव नहीं हो सकता। (जापानी संपादक को टिप्पणी)