पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१५०

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अभिधर्मकोश १. पुत्र, कलत्र, सार्धविहारी, अन्तेवासी के लिए प्रेम होता है, गौरव नहीं । २, परशास्ता, गुणवान् आदि के लिए गौरव होता है, प्रेम नहीं । ३. स्वशास्ता, स्व पिता-माता आदि के लिए गौरव और प्रेम उभय होता है । ४. अन्य जनों के लिए न गौरव, न प्रेम । ३२ डी. कामधातु और रूपधातु में उभय । आरूप्यधातु में प्रेम और गौरव का अभाव है। [१७३] किन्तु आपने कहा है कि प्रेम श्रद्धा है, गौरव हो है । किन्तु श्रद्धा और ही कुशलमहा- भूमिक हैं (२. २५) । अतः प्रेम और गौरव का अस्तित्व आरूप्यधातु में है । प्रेम और गौरव द्विविध हैं : धर्मों के प्रति और पुद्गलों के प्रति । शास्त्र की अभिसन्धि द्वितीय प्रकार से है। जिन श्रद्धा और ह्री का आलम्बन पुद्गल है वह आरूप्यधातु में नहीं होते । प्रथम प्रकार त्रैधातुक है। वितर्कविचारावौदार्यसूक्ष्मते मान उन्नतिः । मदः स्वधर्म रक्तस्य पर्यादानं तु चेतसः ॥३३॥ ३३ ए-बी. वितर्क और विचार चित्त के औदार्य और सूक्ष्मता हैं । चित्त की औदारिकता अर्थात् स्थूलभाव वितर्क कहलाता है । चित्त की सूक्ष्मता अर्थात् सूक्ष्मभाव विचार कहलाता है । वितर्क और विचार इन दोनों का एक चित्त में योग (संप्रयुक्त) कैसे होता है ? क्या चित्त एक ही काल में औदारिक और सूक्ष्म दोनों हो सकता है एक मत के अनुसार विचार की तुलना शीतोदक से, चित्त की इस शीतोदक पर तैरते हुए सर्पि से और वितर्क की सर्पि पर पड़ने वाले आतप से करनी चाहिये । आतप और उदक के कारण सर्पि न अति द्रवीभूत होता है, न अति घनीभूत होता है । इसी प्रकार वितर्क और विचार चित्त से युक्त होते हैं : चित्त विचार के कारण न अति सूक्ष्म होता है और न वितर्क के कारण अति औदारिक होता है । किन्तु हम कहेंगे कि इस व्याख्यान से यह सिद्ध होता है कि वितर्क और विचार चित्त की औदा- रिकता-सूक्ष्मता नहीं है किन्तु औदारिकता-सूक्ष्मता के यह निमित्त है : शीतोदक और आतप लपि का श्यानत्व, विलीनत्व नहीं हैं किन्तु यह इन दो भावों के निमित्तभूत हैं । दोपान्तर कहते है। चित्त की औदारिकता और सूक्ष्मता आपेक्षिका है। इनमें अनेक भूमि-भेद 3 उभयं पामरूपयोः।। ' वितर्कविचाराचौदार्यसूक्ष्मते---यह लक्षण एक सूत्र पर आश्रित है जिसमा नामोल्लेख हमारे अन्यों में नहीं है--१.३३ देखिये। ३ विभाषा, ४२, १४ का सातवां मत ।