पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय फोशस्थान: चैत

१३७ और प्रकार-भेद हैं। प्रथम ध्यान का चित्त कामावचर चित्त की अपेक्षा सूक्ष्म है और द्वितीय ध्यान के चित्त की अपेक्षा नीदारिक है । [१७४] एक ही भूमि में प्रकार-भेद होता है । गुण और फ्लेश आपेक्षिक रूप से औदारिक और सूक्ष्म होते हैं क्योंकि यह ९ प्रकारों में विभक्त हैं । अतः यदि वितर्क और विचार चित्त की औदारिकता और सूक्ष्मता स्वभाव हैं तो हमको स्वीकार करना पड़ेगा कि इनका अस्तित्व भवान्न पर्यन्त होता है। किन्तु द्वितीय ध्यान से ऊर्ध्व यह नहीं होते। पुनः औदारिकता भीर सूक्ष्मता का जातिभेद युक्त नहीं है : अतः वितर्क और विचार का स्वभाव-भेद युक्त नहीं है । एक दूसरे मत के अनुसार अर्थात् सीत्रान्तिकों के अनुसार वितर्क और विचार 'वाक्-संस्कार' हैं। वास्तव में सूत्र कहता है कि 'वितर्क और विचार करके (वितक्य, विचार्य) भाषण होता है, बिना वितर्क-विचार के नहीं 13 जो औदारिक वाक्-संस्कार होते हैं उन्हें वितर्क और जो सूक्ष्म होते हैं उन्हें विचार कहते हैं । इस व्याख्यान के अनुसार वितर्क और विचार दो पृथग्भूत धर्म नहीं है किन्तु समुदायरूप है, यह चित्त-चैन के कलाप हैं जो बाक्-समुत्यापक है और जो पर्याय से ओबारिक और सूक्ष्म होते हैं । वैभापिक-यदि एक चित्त में एक बौदारिक धर्म वितर्क और अपर सूक्ष्म धर्म विचार हो तो इसमें विरोध क्या है ? सीत्रान्तिन-कोई विरोध न हो यदि इन दो धर्मों का जाति-भेद हो । यया वेदना और संज्ञा-यद्यपि प्रथम बादारिक है और द्वितीय सूक्ष्म (१.२२) है-एकत्र होते हैं। किन्तु एक ही जाति की दो मवस्याएं, मृदु-अधिमात्रता, बीदारिक सूक्ष्मता, युगपत् संभव नहीं है। वैभापिक-वितर्क और विचार में जाति-भेद है । [१७५] सीवान्तिकः-यह भेद क्या है ? वैभाषिक-यह भेद अवक्तव्य है किन्तु यह चित्त की मृदु-अधिमानता से व्यक्त होता है।' सीत्रान्तिका-चित्त की मृदु-अघिमात्रता भिन्न जाति के दो धर्मों के अस्तित्व को सिद्ध नहीं फरती क्योंकि एक ही जाति कभी मृदु, कभी अधिमान होती है। यह युक्तिदिभाषा, ५२, ६ में वर्णित है, और वाष्टान्तिकों को बतायो गई है। २ अर्थात् पाक तमुत्यापक। [च्या० १३९.९] 3 पिताय विक्षार्य वाचं भापत नायितप्यं नाविचार्य [च्या० १३९.१०]-मनिमम, १.३०१, संयुत्त, ४.२९३ से तुलना कीजिये : पुचे खो दितलेल्या विदारेत्या पच्छा वा भिन्दति--- दूसरी ओर-दिभंग, १३५ : वाची संचेतना = दाची संखारो। संघभद्र कहते है कि चित्त में विज्ञ और विधार के एकत्र होने में कोई विरोध नहीं है किन्तु एक ही काल में यह दो धर्म तमुवादार नहीं करते, उनले वृत्ति उद्भूत नहीं होती : जय सर्वदा वर्तमान दितर्क की वृत्ति उद्भूत होता है तब चित्त-चत्त औकारिक होते हैं. यथा राग और मोह का युगपदभाव है किन्तु जब राग की वृत्ति उद्भूत होती है तो पुद्गल रामचरित अपदिष्ट होता है. [च्या० १४०.१] 9