पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१५४

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१४० अभिधर्मकोश [१७८] वह संप्रयुक्त अर्थात् सम और अविप्रयुक्त कैसे हैं ? ३४ डी. पाँच प्रकार से। चित्त और चैत आश्रय-आलम्बन-आकार-काल-द्रव्य इन पाँच समताओं से संप्रयुक्त हैं। अर्थात् (वेदनादि) चैत्त और चित्त संप्रयुक्त हैं: (१-३) क्योंकि उनके आश्रय, आलम्बन और आकार एक ही हैं, (४) क्योंकि वह सहभू हैं, (५) क्योंकि इस संप्रयोग में प्रत्येक जाति का एक ही द्रव्य होता हैः यथा एक काल में एक ही चित्त द्रव्य उत्पन्न होता है तथा इस एक चित्त- द्रव्य के साथ एक वेदनाद्रव्य, एक संज्ञाद्रव्य और प्रत्येक जाति का एक एक चैत्त संप्रयुक्त होता है (२.५३ सी-डी देखिये)। हमने चित्त-चैत्त का उनके प्रभेदों के साथ सविस्तर निर्देश किया है। ४. चित्तविप्रयुक्त धर्म (३५-४८)। विप्रयुक्तास्तु संस्काराः प्राप्त्यप्राप्ती सभागता। आसंशिकं समापत्ती जीवितं लक्षणानि च ॥३५॥ नामकायादयश्चेति प्राप्तिभिः सप्तन्वयः। प्राप्त्यप्राप्ती स्वसन्तानपतितानां निरोधयोः ॥३६॥ चित्त-विप्रयुक्त संस्कार कौन हैं? ३५-३६ ए. 'वित्त-विप्रयुक्त' यह हैं :-प्राप्ति, अप्राप्ति, सभागता, आसंज्ञिक, दो समापत्ति जीवितेन्द्रिय, लक्षण, नामकायादि और एवंजातीयक धर्म। २ निमित्तादि का उद्ग्रहण करती है इत्यादि [व्या० १४२.१] :--अथवा विज्ञान उसी आलम्बन की सामान्यरूपेण उपलब्धि है क्योंकि यह उपलभ्यतारूप का ग्रहण करता है (उपलभ्यतारूपं गृह्णाति) । चैत विशेषरूपेण इसकी उपलब्धि करते हैं । वेदना अनुभव नीयतारूप का ग्रहण करती है। संज्ञा परिच्छेचतारूप का ग्रहण करती है, इत्यादि ५ निर्दिष्टाश्चित्तवेत्ताः सविस्तरप्रभेदाः-अर्थात् सह विस्तरप्रभेदाभ्यामथवा सह विस्तर- प्रभेदेन । [व्या० १४८.१६, १९] कुई-को, विशिका, १. १४ वी से तुलना कीजिये । विप्रयुक्तास्तु संस्काराः प्राप्त्यप्राप्ती सभागस्त । आसंज्ञिकं समापत्ती जीवितं लक्षणानि च । नामकायादयश्चेति । व्या० १४२.२८] 'इति' शब्द सूचित करता है कि इस सूची में संघभेद (४.९९) आदि अन्य विप्रयुक्तों को प्रक्षिप्त करना चाहिये । (२.३०४,४.२०६, सिद्धि, ७१) संघभद्र के अनुसार हूहो-हो- सिंग को प्रक्षिप्त कीजिये।--करण कहता है : येऽप्येवंजातीयकाः : "वहधर्म भी चित्त-विप्र- युदत है जो इस जाति के हैं।" स्कन्धपंचक में यही वाक्य है। प्रकरण के अनुसार चित्त-विप्रयुक्त संस्कार यह हैं प्राप्ति, असंशिसमापत्ति, निरोधसमापत्ति, आसंज्ञिक, जोषितेन्द्रिय, निकायसभाग, आश्रयप्राप्ति, द्रव्यप्राप्ति (?), आयतनप्राप्ति, जाति, जरा, स्थिति, अनित्यता, नामकाय, पदकाय, व्यंजनकाय और अन्य सब धर्म जो चित्त- पिप्रयुक्त जाति के हैं। प्राप्ति का लक्षण इस प्रकार है : धर्माणां प्राप्तिः; आश्रयप्राप्तिः आश्रयायतन प्राप्ति