पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१५५

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द्वितीय कोशस्यान : चित्त-विप्रयुक्त [१७९] यह धर्म चित्त से संप्रयुक्त नहीं होते; यह रूपस्वभाव नहीं हैं; यह संस्कार-स्कन्ध में (१.१५) संगृहीत हैं : अतः इन्हें चित्त-विप्रयुक्त संस्कार कहते हैं (१) क्योंकि यह चित्त से विप्रयुक्त है, (२) क्योंकि अरूपी होने के कारण यह चित्त के समानजातीय है । ३६ वी. प्राप्ति लाभ और समन्वय है । प्राप्ति विविध है : (१) अप्राप्त और विहीन का लाभ (प्रतिलम्भ), (२) प्रतिलन्ध और अविहीन का समन्वागम (समन्वय) । अप्राप्ति इसका विपर्यय है । ३६ सी-डी. स्वसन्तानपतित धमों की और दो 'निरोधों की प्राप्ति और अप्राप्ति होती है। [१८०] १. स्वसन्तानपतित संस्कृत धर्मों की प्राप्ति और अप्राप्ति होती है; पर- सत्व-सन्तति-पतित धर्मों की नहीं होती क्योंकि कोई परकीय धर्मों से समन्वागत नहीं होता। असंतति-पतित धर्मों की भी प्राप्ति अप्राप्ति नहीं होती क्योंकि कोई असत्वसंख्यात (१.१० बी) धर्मों से समन्वागत नहीं होता । २. असंस्कृत धमों में प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध (१.६, २.५५) की प्राप्ति होती है । द्रव्यप्राप्ति (?)स्कन्धानां प्राप्तिः ; आयतनप्राप्तिः = आध्यात्मिकबाह्यायतनप्राप्ति (२३.१०,१४ बी ५)। प्रकरणपाद १४ वी ५--प्राप्ति क्या है ? धर्मों की प्राप्ति-असंक्षि-सभापत्ति क्या है ? जो पुद्गल शुभकृत्स्न देवों के क्लेश से विनिर्मुक्त है, ऊर्ध्वलोकों के क्लेश से नहीं, उसका निःसरण मनस्कारपूर्वक चित्त-चैत्त निरोध |--निरोध-समापत्ति क्या है ? आकिंवन्यायतन के क्लेश से विनिर्मुदत पुद्गल का शान्तविहार संज्ञापूर्वक चित्त-चत्त निरोध ।-आसंज्ञिक क्या है ? ससंक्षि सत्वों में उपपन्न सत्वों के चित्त-चैत्तों का निरीव।--जीवितेन्द्रिय क्या है ? वातुक आयु ।-निकायसभाग क्या है ? तत्वों का सादृश्य । १ प्राप्तिाभः समन्वयः व्या० १४३.९] -१.३८ लो-डी, २.५९ वी देखिये । शास्त्र के अनुसार प्राप्तिः कतमा ? यःप्रतिलभ्भो यः समन्वागमः। अभिधर्म और कथावत्यु, ९.१२ में लाभ और समन्वागल का एक अर्थ नहीं है।-थेरवादी के लिये लाभ 'प्रतिलम्भ (पजेशन) है, यया आर्यों का यह सामर्थ्य कि अपनी इच्छा के अनुसार वह उस उस समापत्ति का तंमुखीभाव करें; समन्यागम का अर्य संमुखीभाव है। अन्यत्र (४.४) पटिलाभसमन्वागम और समंगिभावसमन्वागम में विशेष किया हैः सामर्थ्य रखना (अभिवर्म का समन्यागम), वर्तमान में संमुखीभाव, (अभिवर्म का संमुखीभाव)- १९, ४ भी देखिये। २ प्राप्त्यप्राप्ती स्वसन्तानपतितानां निरोधयोः॥ व्या० १४४.३] मेरे क्लेश, मेरे कर्म....... के प्रति मेरो संतान में प्राप्ति-अत्राप्ति होती है अर्थात् मुझको अपने अनागत या अतीत क्लेश की प्राप्ति या अप्राप्ति है . . .. किन्तु मेरी सन्तान और परकीय क्लेश के बीच प्राप्ति या समाप्ति का सम्बन्ध नहीं होता। ' क्लेश को सत्याल्य अवधारण करना चाहिये क्योंकि वह रूपोन्द्रियों से संबद्ध है।