पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४२ अभिधर्मकोश ए. सब सत्व उन धर्मो के अप्रतिसंख्यानिरोध से समन्वागत होते हैं जिनकी उत्पत्ति प्रत्यय- वैकल्य के कारण नहीं होगी । वी. अभिधर्म (ज्ञानप्रस्थान, १९, ९) इस प्रकार कहता है : “कौन अनास्रव धर्मो से समन्वागत है ?--सकलवन्धनादिक्षणस्थ को वर्जित कर सब सत्व प्रतिसंख्यानिरोध से सम- न्वागत होते हैं। सकलवन्धनादिक्षणस्थ वह आर्य हैं जिनके सब प्रकार के क्लेश-बन्धन अप्रहीण हैं और जो मार्ग के आदि क्षण में स्थित हैं। इनमें सकल-वन्धन-बद्ध पृथग्जन भी नहीं संगृहीत हैं। अन्य आर्य और पृथग्जन' प्रतिसंख्यानिरोध से समन्वागत होते है" ।२ सी. आकाश से कोई समन्वागत नहीं होता । अतः आकाश की प्राप्ति नहीं होती। वैभाषिकों के अनुसार प्राप्ति और अप्राप्ति एक दूसरे के विपक्ष हैं। जिसकी प्राप्ति होती है उसकी अप्राप्ति भी होती है । क्योंकि यह गमित है इसलिये कारिका इसे व्यक्त रूप से नहीं कहती । [१८१] सौत्रान्तिक प्राप्ति नामक धर्म के अस्तित्व को नहीं मानते । १. सर्वास्तिवादिन्-वैभाषिक प्राप्ति नामक द्रव्यधर्म के अस्तित्व को कैसे सिद्ध करते हैं ? सर्वास्तिवादिन्--सूत्र में (मध्यमागम, ४९, १६) उक्त है : “१० अशैक्ष धर्मों के उत्पाद, प्रतिलम्भ और समन्वागम से आर्य 'प्रहीण-पंचांग' होता है ।"३ सौत्रान्तिक-यदि आप इस सूत्र से यह परिणाम निकालते हैं कि प्राप्ति का अस्तित्व है तो हम कहेंगे कि असत्वाख्य और परकीय सत्व के धर्मों का भी समन्वागम' होता है। वास्तव में सूत्र (चक्रवर्तिसूत्र) वचन है कि "हे भिक्षुओ! जानो कि चक्रवर्ती राजां सात रत्नों से समन्वागत होता है.... ।" किन्तु रत्नों में चक्ररत्न, स्त्रीरत्न आदि हैं। सर्वास्तिवादिन्--इस सूत्र में 'समन्वागत' शब्द का अर्थ 'वशित्व है । चक्रवर्ती राजा का रत्नों के विषय में वशित्व है क्योंकि वहाँ उसका कामचार है। उसकी इच्छा के अनुसार उनका २ सकलबन्धन पुद्गल वह है जिसने लौकिक मार्ग से काम धातु के ९ प्रकार के क्लेशों में से एक प्रकार के भी प्रतिसंख्यानिरोध का लाभ नहीं किया है । आर्य ने प्रथम क्षण में (आदि- क्षण = दुःखे धर्मज्ञानक्षान्तिः) मार्गहेय (६.७७) फ्लेशों के प्रहाण का लाभ नहीं किया है।---वह पुद्गल एकप्रकारोपलिखित कहलाता है जिसने एक प्रकार के क्लेश के प्रहाण का लाभ किया है (६.३० ए)। ' द्रव्यधर्मः = द्रव्यतो धर्मः, अथवा ध्यं च तद्धर्मश्च स द्रव्यधर्मः। अर्थात् विद्यमानस्वलक्षणो धर्मः [व्या० १४८.१८) -नीचे पृ० १८६ देखिये। १० धर्म यह हैं : आर्य मार्ग के अष्टांग, सम्यगविमुक्ति, सम्यग्ज्ञान (अंगुत्तर, ५.२२२); ५प्रहीण अंग सत्कायदृष्टि, शीलवतपरामर्श, विचिकित्सा, कामच्छन्द, थापाद नहीं है क्योंकि अनागामि-फल को प्राप्ति पर यह अंग प्रहीण हो चुके हैं । यह पंचांग अवभागीय है- रूपराग, आरूप्यराग, औद्धत्य, मान, अविद्या व्या० १४५.२] । 3 दीघ, ३.५९ : दल्हनैमि.. सत्तरतनसमन्नागतो। संघभन सौत्रान्तिक का खण्डन करते हैं, १२, पृ० ३९७; सिद्धि, ५४-५८- अर्हत् के १० धर्म, ६.२९५ । २